Friday, November 18, 2011

कोरे काग़ज़

 
कोरे काग़ज़ एक युवा मन की कितनी कातरता, कितनी बेचैनी उसमें उभरकर आयी है इसका अनुमान आप उपन्यास प्रारम्भ करते ही लगा लेगें। चौबीस वर्षीय पंकज को जब यह पता चलता है कि उसकी माँ उसकी माँ नहीं है तब अपनी असली माँ अपने असली बाप को जानने की तड़प उसे दीवानगी की हदों तक ले जाती है।


यह सत्ताईस अक्टूबर का दिन था-माँ की ज़िन्दगी का बचा-खुचा-सा।
माँ की देह में अभी पाँचों तत्त्व जुड़े हुए थे, पर जोड़नेवाले प्राणों के धागें की गाँठ बस खुलने को ही थी। उसने काँपते होठों से पाँच ख़्वाहिशें ज़ाहिर कीं-
शायद एक-एक तत्त्व की एक-एक ख़्वाहिश थी। सबसे पहली ख़्वाहिश कि मैं पीपलवाले मन्दिर में जाकर पण्डित निधि महाराज को बुला लाऊँ। और साथ ही, दूसरी ख़्वाहिश थी कि लौटते हुए ताज़े फूलों का एक हार ख़रीद लाऊँ।

पीपलवाला मन्दिर दूर नहीं, हमारी गली के मोड़ पर है, इसलिए तेज़ क़दमों से जाने में सिर्फ़ तीन मिनट लगे, और लौटते हुए लगभग अस्सी बरस के निधि महाराज को कन्धे का सहारा देकर चलने में लगभग पन्द्रह मिनट। एक फूलवाला मन्दिर के चबूतरे के पास ही बैठकर फूल बेचता है, इसलिए फूलों का हार उतनी देर में ख़रीद लिया, जितनी देर में निधि महाराज ने उठकर पावों में खड़ाऊँ पहनी...
माँ ने प्राणों के धागे की गाँठ शायद कसकर पकड़ी हुई थी। मैं जब वापस आया, माँ की देह के पाँचों तत्व अभी भी जुड़े हुए थे...

निधि महाराज को आसन देकर, मैंने माँ की तरफ़ देखा। मां ने काँपते हुए हाथों से सामने दीवार पर लगी हुई, मेरे पिता की तस्वीर की ओर इशारा किया। मैंने दीवार से तस्वीर उतारी और माँ के बिस्तर पर ले आया।
तस्वीर को छाती के पास टिकाकर, माँ ने सिरहाने की ओर इशारा किया, सिरहाने के नीचे पड़ी हुई चाबी की ओर। और फिर कमरे के कोने में गड़े हुए लकड़ी के सन्दूक़ की ओर।

अब माँ की अगली दो ख़वाहिशें और थीं। यह कि सन्दूक़ में से मैं मौलियों से बँधे हुए काग़ज़ भी निकाल लाऊँ, और किनारीवाला एक दुपट्टा भी।
माँ है सो माँ ही कहूँगा, पर उम्र के लिहाज़ से नानी या दादी भी कह सकता था। हैरानी इसलिए हुई, जब माँ ने वह किनारी जड़ा दुपट्टा अपने सिर पर ओढ़ लिया।
मौलियों में बँधे हुए काग़ज़ उसने एक बार अपने हाथों में भरे, फिर मेरी दोनों हथेलियों पर रख दिये। कहा, ‘‘तुम्हारी अमानत है।’’

उस वक़्त माँ ने नहीं, निधि महाराज ने कहा, ‘‘पंकज बेटा ! यह मकान की वसीयत है। दूसरे काग़ज़ भी ज़रूरी हैं। सँभालकर रखना है।’’ साथ ही, माँ का इशारा पाते ही निधि महाराज ने मेरे सिर पर हाथ रखा, कुछ कहा, कुछ आशीर्वाद जैसा। पर संस्कृत का वह श्लोक मेरी समझ से दूर मात्र मेरे कानों का स्पर्श पाकर रह गया।
फिर माँ ने पतझड़ के पत्तों जैसे हाथों में फूलों का हार थामा और मेरे पिता की तस्वीर पर चढ़ा दिया। फिर निधि महाराज की ओर देख टूटती-सी आवाज़ में कहने लगी, ‘‘आज सत्ताईस तारीख़...आज बृहस्पति तुला में आया है...आज मेरा संजोग है...’’

निधि ने दोनों हाथ आशीष की मुद्रा में ऊपर उठाये।
माँ ने अभी-अभी जब एकटक मेरी ओर देखा था, उसकी देह का स्पन्दन-शायद सारे अंगों में से निकलकर, उसकी आँखों में इकट्ठा हो गया था। पर अब उसकी आँखें बन्द थीं....
अपनी साँस मुझे चलती हुई नहीं, रुकती हुई-सी लगी।
घर की यह कोठरी शायद शान्त समाधि की अवस्था में पहुँच जाती, पर निधि महाराज के संस्कृत के श्लोकों ने सारी कोठरी में एक हलचल-सी पैदा कर दी....

हार के फूलों की सुगन्ध भी एक हलचल की तरह कमरे में फैल रही थी...
माँ के हाथ हिले-नमस्कार की मुद्रा में, और निधि महाराज के पैरों की तरफ़ जा झुके। साथ ही, हाथों में पहनी हुई सोने की दो चूड़ियाँ निधि महाराज के चरणों के पास रख दीं...
माँ के होंठ-चेहरे की झुर्रियों में दो झुर्रियों की तरह ही सिकुड़े हुए थे, पर उनमें से जैसे एक आवाज़ झरी, ‘‘मेरा पंकज मुझे अग्नि देगा...’’

जवाब में निधि महाराज ने श्लोकों की लय को थामकर कहा, ‘‘इच्छा पूरी होगी।’’
लगा-माँ के चेहरे की खिंची हुई झुर्रियाँ शान्त और सहज हो गयी हैं। आवाज़ भी सहज लगी, ‘‘गंगाजल....’’
जानता था-माँ ने आले में गंगाजल का लोटा रख छोड़ा है, मैंने चम्मच से माँ के मुँह में गंगाजल डाला।
होंठों में स्पन्दन-सा हुआ, जो पानी की कुछ बूँदों के साथ शान्त हो गया।
फिर कोई आवाज़ नहीं आयी। यहीं गंगाजल की कुछ बूँदें शायद माँ की पाँचवीं और आख़िरी ख़्वाहिश थी...
और लगा-प्राणों का धागा अब पाँच तत्त्वों को खोल रहा था...

पाँच तत्त्व-अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश हैं, और माँ की पाँच ख़्वाहिशें शायद एक-एक तत्त्व की एक-एक इच्छा की तरह थीं, पर नहीं जान पाया कि कौन-सी ख़्वाहिश कौन-से तत्त्व ने की थी...सिर्फ़ यही जाना कि पाँचों ख़्वाहिशें पूरी हो गयीं थीं, और अब पाँचों तत्त्व खुल-बिखर रहे थे...
निधि महाराज ने घी का एक दीया जलाकर माँ के सिरहाने के पास रख दिया।
बाहरवाले कमरे में अचानक किसी के आने की आहट महसूस हुई, शायद माँ की पड़ोसन रक्खी मौसी आयी थी, और साथ में गली-मोहल्ले का कोई और भी...पर मैं उधर देखता कि तभी दहलीज़ की ओर एक अपरिचित-सी आवाज़ सुनाई दी, ‘‘नमस्कार महाराज !’’

निधि महाराज ने दरवाज़े की ओर देखा, दोनों हाथ उठाकर नमस्कार स्वीकार किया, और आसन से उठकर उस ओर बढ़े....
मैंने अपरिचित आवाज़ वाले को पहचान लिया। दूर के रिश्ते से मेरा चाचा है वह-जनक चाचा। दो गलियों के फ़ासले पर रहता है। पता था कि उन लोगों का हमारे घर आना-जाना नहीं था, तो भी हैरानी नहीं हुई। ऐसे वक़्त शायद उसका आना स्वाभाविक ही था।
पर हैरानी हुई-इस शोक में शरीक होने के लिए आया है चाचा। अन्दर कोठी की तरफ़ नहीं आया वह। दरवाज़े में से ही पीछे बाहर के कमरे की ओर लौटता हुआ, निधि महाराज से कहने लगा, ‘‘पता लगा था कि बचेगी नहीं, इसलिए मैं आपसे बात करने के लिए मन्दिर गया था...’’

निधि महाराज दहलीज़ को लाँघकर बाहर के कमरे में जाकर खड़े हो गये। उन्हीं की आवाज़ आयी, ‘‘कहिए !’’
जवाब में चाचा की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘आप वेदों के ज्ञाता हैं महाराज ! आपसे भी कहना होगा ? आप सब जानते हैं।’’
निधि महाराज की मुस्कराहट दिखाई नहीं दी, पर जितनी भी अक्षरों में से दिखाई दे सकती है, वह दिख गयी। कह रहे थे,‘‘यदि सब जानता हूं, तो फिर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं ।’’
निधि महाराज ने कुछ न कहने का जैसे आदेश ही दिया था, पर कहनेवाले ने फिर भी कहा, ‘‘बस यही शंका निवृत करनी थी, महाराज ! कि देह को अग्नि देनी होगी, जिसके लिए कुल के बेटे को बुलाने के लिए अभी सन्देश भेजना होगा। आप जानते हैं कि मेरा बेटा शहर में नहीं रहता....’’

निधि महाराज की उम्र अस्सी के क़रीब है, इसलिए उनकी आवाज़ में एक लड़खड़ाहठ-सी रहती है, पर इस वक़्त जो आवाज़ सुनी वह ऊँची नहीं थी, लेकिन बहुत सख़्त थी-
‘‘कुल का बेटा उसके पास खड़ा है, कहीं से बुलाना नहीं पड़ेगा।’’
जवाब में चाचा का स्वर काँप उठा, ‘‘क्या कह रहे हैं महाराज ! क्या पंकज अग्नि देगा ?’’
‘‘हाँ, पंकज अग्नि देगा।’’ निधि महाराज ने जवाब दिया, और साथ ही कहा, ‘‘आप लोग शव-यात्रा में आना चाहें तो ज़रूर आएँ ! मृतक आपके कुल की गृहलक्ष्मी है।’’

‘‘क्या कह रहे हैं महाराज !’’-लगा, चाचा की आवाज़ हकला गयी। कह रहा था, ‘‘यह अधर्म होगा महाराज ! गृहलक्ष्मी को दत्तक पुत्र अग्नि नहीं दिखा सकता....दत्तक पुत्र वंश का नाम धारण कर सकता है, ज़मीन-जायदाद में से हिस्सा ले सकता है, पर अग्नि नहीं दे सकता...’’
‘‘दे सकता है...’’ निधि महाराज का स्वर उठा। शायद उन्हें कुछ और कहना था, पर उनकी बात को काटती-सी चाचा की आवाज़ आयी, ‘‘यह कौन से वेद में लिखा हुआ है, महाराज ?’’
निधि महाराज का स्वर जितना धीमा था, उतना ही सहज और सख़्त भी, ‘‘जिस दिन वेदों के पठन के लिए आओगे, उस दिन बताऊँगा। इस वक़्त जा सकते हो। चार बजे शव-यात्रा के लिए आ जाना।’’

लगा-एक मृत देह के सिरहाने जल रहे दीये की बाती की तरह, मैं भी चुपचाप जल रहा था...
मैं कौन हूँ ? यह दत्तक पुत्र क्या होता है ? माँ ने निधि महाराज को बुलाकर यह क्यों कहा कि पंकज अग्नि देगा ? क्या उसे मालूम था कि कोई चाचा आकर मुझे अग्नि देने से रोकेगा ?
कुछ समझ में नहीं आया-सिर्फ़ यही जान पाया कि कुछ दीये आरती के थाल में रखने के लिए होते हैं, और कुछ दीये सिर्फ़ मरनेवालों के सिरहाने के पास रखने के लिए...
और मैं शायद आरती के थाल में रखा जानेवाला दीया नहीं हूँ...
आज अचानक कोई पाताल-गंगा, धरती पर आकर, मेरे पैरों के आगे बहने लगी है..
लगता है-मेरी उम्र के पूरे चौबीस बरस, मेरे सामने एक-एक करके इस नदी में बहते जा रहे हैं...
आज घर में बहुत-सी आवाज़ें इकट्ठी हो गयी थीं। रक्खी मौसी की आवाज़ भी। मेरे सिर को सलहाकर रोती रही। गली के और जाने किस-किस घर से आये मर्दों की आवाजें भी थीं...पर इस वक़्त तक, साँझ सँवला जाने तक, वे सारी आवाज़ें उस पाताल-गंगा में बहती हुई मुझमें बहुत दूर निकल गयी हैं.....

लेकिन सुबह जो जनक चाचा अग्नि देने का अधिकार लेकर आया था, उसकी आवाज़ फिर नहीं फूटी...शायद पाताल-गंगा के किसी पिछले मोड़ पर ही पानी में गिर गयी थी, मैंने देखी नहीं।
निधि महाराज ने मेरे हाथ से माँ के पार्थिव शरीर को अग्नि दिखायी। उस वक़्त उनकी आवाज़ नहीं काँपी, हाँ मेरा हाथ अवश्य काँप गया था..

लगा-‘माँ’ लफ़्ज़ भी पाताल-गंगा में बह रहा है।
नहीं जानता कि कोई रिश्ता किस तरह पानी में बह सकता है...
आज सन्ध्या-पूजन के बाद निधि महाराज आये थे। उनके अँगोछे में कुछ फल थे, मिठाई भी। मुझे ज़बरदस्ती कुछ खिलाया। बोले-यह मन्दिर का प्रसाद है...
पूछा, ‘‘महाराज ! जो बता सकती थी, वह चौबीस बरस चुप रही। अब हमेशा के लिए चुप हो गयी है। आप बताइए ! वह मेरी कौन थी ?’’

‘‘वह तुम्हारी माँ थी पंकज !’’ निधि महाराज ने मेरे पास बैठकर मेरे सिर पर हाथ रखा।
मैंने कहा, ‘‘जानता हूँ, उसकी पहचान इसी लफ़्ज़ में है। पर आज अचानक मुझसे यह पहचान क्यों छीनी जा रही है ?’’
निधि महाराज हँस दिये। जवाब देने की बजाय पूछने लगे, ‘‘पहचान कौन देता है बेटा ?’’
कहा, ‘‘शायद जन्म ही यह पहचान देता है....’’

कहने लगे, ‘‘अन्तरात्मा यह पहचान देती है। तुम उससे पूछो कि वह तुम्हारी कौन थी ?’’
कहा, ‘‘पर अन्तरात्मा उसी ने बनायी थी। उसी ने यह अक्षर सिखाया। मेरे लिए वह पूर्ण सत्य था, पर आज किसी ने उस पूर्ण सत्य को झूठ क्यों कहना चाहा ?’’
‘‘झूठ, लोभ सिखाता है बेटा ! अन्तरात्मा नहीं सिखाती।’’
‘‘किस चीज़ का लोभ ?’’
‘‘इस मकान का, पैसे का....’’

‘‘पर बात धर्म की हुई थी, पैसे की नहीं....’’
‘‘पैसे का लोभ धर्म की आड़ लेता है...’’
‘‘पर उसने मुझे दत्तक पुत्र कहा था। दत्तक पुत्र क्या होता है ?’’
निधि महाराज जवाब को सवाल में बदलना जानते हैं। कहने लगे, ‘‘पीरों-फ़कीरों ने जिस्म को ख़ुदा का हुजरा कहा है, आत्मा की कोठरी। तुम बताओ, महान कोठरी होती है कि आत्मा ?’’
कहा, ‘‘कोठरी महान होती है, लेकिन आत्मा के कारण।’’

निधि महाराज फिर मुस्कराये। कहने लगे, पुत्र तन की कोठरी से भी जन्म ले सकता है, आत्मा से भी। पर यह दुनिया कोठरी को मान्यता देती है, आत्मा को नहीं। भूल जाती है कि कोठरी, आत्मा के कारण महान होती है...
‘‘मैं निधि महाराज का दर्शन-शास्त्र समझने की अवस्था में नहीं था, इसलिए फिर पूछा, ‘‘क्या मैंने इस माँ की कोख से जन्म नहीं लिया था ?’’

‘‘तुमने उसकी आत्मा से जन्म लिया था..’’
‘‘सो गोद लिये गये पुत्र को दत्तक पुत्र कहते हैं ?’’
‘‘कहने दो, जो कहते हैं...’’
लगा-पाताल गंगा में मैंने अपने बहते हुए रिश्ते को उस लकड़ी की तरह थामा हुआ है जिसके सहारे मैं शायद डूबने से बच सकता हूँ...

पूछा, ‘‘मेरी यह माँ और मेरा यह बाप मुझे कहाँ से लाया था ?’’
निधि महाराज क्षण-भर के लिए अन्तर्धान हो गये, फिर कहने लगे, ‘‘पिता को तुम्हारा सुख नसीब नहीं था। उनके निधन के बाद तुम्हारी माँ ने तुम्हें पाया था।’’

कहाँ से ? यह सवाल पाताल-गंगा में गोता लगाने जैसा सवाल था, इसलिए होंठों में हरकत नहीं हुई।
निधि महाराज ही कहने लगे, ‘‘उस वक़्त भी तुम्हारे इस चाचा ने बहुत मुसीबत खड़ी की थी। इस मकान का लोभ जो था ! सो उसने धर्म की आड़ ली कि विधवा स्त्री कोई पुत्र गोद नहीं ले सकती...’’
‘‘क्या ऐसी भी कोई वेद-आज्ञा है ?’’

‘‘इन्होंने वेद कब पढ़े हैं ! विधवा का धन, उसके दूर-नजदीक के सम्बन्धियों के हाथों से न निकल जाए, इसलिए ब्राह्मण-पूजा के वेदों में बारह प्रकार के पुत्र माने गये हैं। एक, जिसे जन्म दिया जाए। दूसरा, अपनी बेटी का पुत्र। तीसरा, अपनी पत्नी का दूसरे पुरुष से पैदा हुआ पुत्र। चौथा, अपनी कुँवारी कन्या का पुत्र। पाँचवाँ, पत्नी के पुनर्विवाह से हुआ पुत्र। छठा, दूसरे को गोद दिया गया पुत्र। सातवाँ, किसी माता-पिता से ख़रीदा हुआ पुत्र। आठवाँ, शुभ गुणों के कारण किसी को माना हुआ पुत्र। नौवाँ, किसी अनाथ बच्चे को पुत्र समान सोचा गया पुत्र। दसवाँ, विवाह के वक़्त गर्भवती स्त्री का पुत्र। ग्यारहवाँ, अपनी स्त्री से ऐसे पुरुष द्वारा उत्पन्न हुआ पुत्र जिसका पता न लगाया जा सके। और बारहवाँ, किसी कारण माँ-बाप का त्याग दिया गया पुत्र, जिसका पालन-पोषण किया जाए।’’

साँसें गोता खाने लगीं। पाताल, गंगा में नहीं, हैरानी में। मन आस-पास के समाज से निकलकर उस वक़्त की तरफ़ देखने लगा-जब कुँवारी कन्या का पुत्र भी दम्पती के लिए पुत्र हुआ करता था, और जब विवाह के वक़्त गर्भवती पत्नी का पुत्र भी पुत्र होता था...
आजकल के अख़बारों में मैंने प्रायः उन नालियों का ज़िक्र पढ़ा हुआ है, जिनमें सद्यःजात शिशु मृत अथवा जीवित मिलते हैं...
शायद माथा नहीं पर मन ज़रूर निधि महाराज के ज्ञान के आगे झुक गया।

सिर्फ़ इतना ही कहा, ‘‘माँ कई बार अपनी एक परलोक सिधार गयी बेटी का ज़िक्र किया करती थी। कहा करती थी, मरकर वही तुम्हारी सूरत में पैदा हो गयी-वही आँखें वही माथा वह हँसी...’’
साथ ही, ख़याल आया-जब माँ मेरी सूरत मृत बहन की सूरत के साथ मिलाती थी; तब सब स्वाभाविक लगता था। उसने मुझे कभी नहीं बताया कि मैं उसका गोद लिया हुआ पुत्र था। पर...
मुझे जैसे हँसी आ गयी। निधि महाराज से कहा, ‘‘आत्मा पुत्र को जन्म देती है, पर साथ ही शायद भ्रम भी पातली है। माँ यह भूल गयी कि उसकी मृत बेटी की सूरत लेकर मैं कैसे जन्म ले सकता हूँ।’’

निधि महाराज कुछ नहीं बोले। मैं ही माँ के उदास मन की बातें सुना-सुना कर माँ के भ्रम पर हँसता-सा रहा।
उन्होंने सिर्फ़ यह बताया कि तुम्हें गोद लेते वक़्त, तुम्हारे दूर के इस चाचा ने जो दुहाई दी थी, उस बात का खण्डन भी धर्म के नाम पर किया गया था। वह सच भी था। तुम्हारे पिता की मृत्यु अचानक हुई थी, मृत्यु से पहले उन्होंने तुम्हें गोद लेने का निश्चय किया हुआ था। इसलिए माँ भले ही विधवा थी, जब उसने तुम्हें गोद लिया तो उसके निश्चय में तुम्हारे पिता का निश्चय भी शामिल था। दोष मुझ पर भी लगाया गया था कि मैंने पूजा के लोभ में आकर तुम्हारी माँ को इस अधर्म से रोका नहीं था, पर झूठे दोष से क्या होता है...

उस वक़्त निधि महाराज ने अपने अँगोछे की गाँठ में बँधी हुई सोने की चूड़ियाँ मेरी हथेली पर रख दीं, जो आज सुबह माँ ने उनके चरणों में चढ़ायी थीं। कहने लगे, ‘‘चूड़ियाँ तुम्हारी माँ को बहुत प्यारी थीं। उसकी चल बसी बेटी की निशानी थीं ये। यह निशानी अब तुम्हारे पास रहनी चाहिए...’’
संकोच-सा हुआ। कहा, ‘‘पर यह माँ का दान है...’’

निधि महाराज हँस दिये-‘‘दान का हक़ सिर्फ़ तुम्हारी माँ को था, मुझे नहीं है ? तुम यह मेरा दान समझ लो। यह मेरी अन्तरात्मा की आवाज़ है कि चूड़ियाँ इसी घर में रहनी चाहिए। इस घर में जब घर की बहू आएगी, ये उसके हाथों में होनी चाहिए....’’
आज तक ब्राह्मण-लोभ की बात, जो भी देखी-सुनी थी, निधि महाराज ने मेरी आँखों के सामने उसका खण्डन कर दिया। इसलिए मन फिर एक बार उनके आगे झुक गया।

आज के तूफान के बाद, मैं इस सुख का पल सँभालकर अंजुलि में भर लेना चाहता था, पर हाथों में सामर्थ्य नहीं थी। मुँह से निकला, ‘‘आपने माँ से कभी नहीं पूछा था कि मैं कौन हूँ ?’’
निधि महाराज ने नज़र भरकर मेरी ओर देखा। बोले, ‘‘मैं सिर्फ़ यह जानता हूँ कि तुम एक धर्म-प्राण माँ के पुत्र हो। आज तुमने अपनी माँ के शब्द सुने थे,

जब उसने तुम्हारे पिता की तस्वीर को फूलों का हार पहनाया था ? वह फूलों की जयमाला थी। उसने कहा था-आज सत्ताईस तारीख़ है, आज बृहस्पति तुला में आया है, आज मेरा संजोग है...’’
माँ ने कहा था, पर उसकी बात मेरी समझ से बाहर रही आयी। इस वक़्त भी याद नहीं थी। निधि महाराज ने उसके शब्द दोहराये, तो याद आयी। मैंने पूछा, ‘‘मैं कुछ नहीं समझा था, इसका क्या मतलब था ?’’

‘‘वह तुम्हारे पिता के निधन के बाद सिर्फ़ तुम्हारा मुँह देखकर जीती रही। तुम्हें पालने के लिए, तुम्हें पढ़ाने के लिए, तुम्हें बड़ा करने के लिए। वैसे वह तुम्हारे पिता से बिछुड़कर जीना नहीं चाहती थी। वह इस दुनिया से विदा होकर, अगली दुनिया में तुम्हारे पिता से मिलने का इन्तज़ार कर रही थी...उसे मालूम था कि आज के दिन बृहस्पति तुला राशि में आएगा, और जिनके विवाह बहुत देर से रुके हुए हैं, उनके संजोग बनेंगे। उसने अपनी मृत्यु को भी तुम्हारे पिता के साथ संयोग का दिन माना। सोचा, अब वह अगली दुनिया में जाकर तुम्हारे पिता से मिल सकेगी। इसीलिए उसने किनारीवाला दुपट्टा ओढ़ा। तुम्हें पालकर बड़ा करनेवाले कर्तव्य से वह मुक्त हो गयी थी। उसके लिए यह मृत्यु उसके संयोग का दिन था। इसलिए कहता हूँ कि वह धर्मात्मा थी...’’

मैं बोल नहीं सका। मन का सवाल गूँगा-सा होकर निधि महाराज के मुँह की ओर ताकता रहा...
वह चले गये हैं...
सामने फिर अँधेरे की पाताल-गंगा बह रही है।
नहीं जानता कि मन का कौन-सा चिन्तन इस पाताल-गंगा में डूब जाएगा, और कौन-सा उस दूसरे किनारे पर जा लगेगा।

10 comments:

अशोक कुमार शुक्ला said...

इस सुन्दर सी कहानी ने शिवानी के उपन्यास रथ्या की याद दिला दी ।
रंजना जी आपका हार्दिक धन्यवाद

सदा said...

यह मृत्यु उसके संयोग का दिन था ...

इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिए आभार ।

दिगम्बर नासवा said...

लाजवाब प्रस्तुति ... पहली १-२ लाइनें स्वत: ही मजबूर कर देत अहिं पूरी पोस्ट पढ़ने की ...

kanu..... said...

bahut sundar kahani...putra itne tarah ke hote hain aaj pata chala...mrityu sanjog ban sakti hai ye bhi aj jana...

वाणी गीत said...

आपके साथ फिर से पढ़ी ये कहानी ,
बेहतरीन प्रस्तुति !

शारदा अरोरा said...

Amrita preetam ji ka likha hua ..kisi ke man kee peeda ko saakaar kar deta hai ...sach much adbhut hai ...shukriya prastuti ke liye ...

Always Unlucky said...

I would like to say thanks for the efforts you have made compiling this article. You have been an inspiration for me. I’ve forwarded this to a friend of mine.

From everything is canvas

प्रेम सरोवर said...

बहुत रोचक और सुंदर प्रस्तुति.। मेरे नए पोस्ट पर (हरिवंश राय बच्चन) आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

Anonymous said...

रंजना जी ये कहानी पढ़ने के बाद मेरे पङदादाजी की याद आ गई मेरे पङदादाजी ने भी मुझे भी एसे ही बुलाया था लेकिन ये पंकज तो गोद पुत्र था पर मे तो पोता था उनके चार बेटों के हाथ से गंगा जल नहीं ग्रहण किया पर मेरे हाथ से किया था मुझे आज भी वो दिन याद है जब उनका सवास टूट जाने के बाद फिर से संवास वापस शरीर मे आया था मेरे हाथो से गंगाजल लेने के लिए जब उनके सबसे छोटे पुत्र ने जल हाथो मे लिया तो सवास वापस आया और पास मे बैठे लोगो से कहा मेरे पङपोते के हाथों से गंगा जल लुगा तब मे छोटा था ज्यादा याद नहीं है फिर वो दिन याद आ जाते है मेरे पङदादाजी 118 साल के हो गये थे फिर भी चल फिर सकते थे अच्छे करम अच्छा फल देते है वो भगवान ये तो जैसे लगता था रोज बातें करते थे वो कभी कभी बात करते थे कि मुझे कितनी बार यमराज लेने भी आए पर मे मना करता था तो यमराज चले जाते थे बहुत ही लंबी बात है मुझे दुख यह है के मेरे पास blog नहीं है बहुत अच्छी कहानी है धन्यवाद भाटी जैसलमेर राजस्थान

Dinesh pareek said...

आप की रचना बड़ी अच्छी लगी और दिल को छु गई
इतनी सुन्दर रचनाये मैं बड़ी देर से आया हु आपका ब्लॉग पे पहली बार आया हु तो अफ़सोस भी होता है की आपका ब्लॉग पहले क्यों नहीं मिला मुझे बस असे ही लिखते रहिये आपको बहुत बहुत शुभकामनाये
आप से निवेदन है की आप मेरे ब्लॉग का भी हिस्सा बने और अपने विचारो से अवगत करवाए
धन्यवाद्
दिनेश पारीक
http://dineshpareek19.blogspot.com/
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