पहले भाग से आगे:-
फ्लैटी होटल आम होटलों जैसा नहीं था। वहां ज्यादातर अंग्रेज़ लोग ही आते और ठहरते थे। उसमें अकेले अकेले कमरे भी थे, पर बड़े बड़े तीन कमरों के सेट भी। ऐसे ही एक सेट में नीलम रहती थी। और शाह ने सोचा - दोस्तों यारों का दिल खुश करने के लिये वह एक दिन नीलम के यहां एक रात की महफिल रख लेगा।
"यह तो चौबारे पर जाने वाली बात हुई," एक ने उज्र किया तो सारे बोल पड़े, " नहीं, शाह जी! वह तो सिर्फ तुम्हारा ही हक बनता है। पहले कभी इतने बरस हमने कुछ कहा है? उस जगह का नाम भी नहीं लिया। वह जगह तुम्हारी अमानत है। हमें तो भतीजे के ब्याह की खुशी मनानी है, उसे खानदानी घरानों की तरह अपने घर बुलाओ, हमारी भाभी के घर।"
बात शाह के मन भा गयी। इस लिये कि वह दोस्तों यारों को नीलम की राह दिखाना नहीं चाहता था (चाहे उसके कानों में भनक पड़ती रहती थी कि उसकी गैरहाजरी में कोई कोई अमीरजादा नीलम के पास आने लगा था।) - दूसरे इस लिये भी कि वह चाहता था, नीलम एक बार उसके घर आकर उसके घर की तड़क भड़क देख जाये। पर वह शाहनी से डरता था, दोस्तों को हामी ना भार सका।
दोस्तों यारों में से दो ने राह निकाली और शाहनी के पास जाकर कहने लगे, " भाभी तुम लड़के की शादी के गीत नहीं गवांओगी? हम तो सारी खुशियां मनायेंगे। शाह ने सलाह की है कि एक रात यारों की महफिल नीलम की तरफ हो जाये। बात तो ठीक है पर हजारों उजड़ जायेंगे। आखिर घर तो तुम्हारा है, पहले उस कंजरी को थोड़ा खिलाया है? तुम सयानी बनो, उसे गाने बजाने के लिये एक दिन यहां बुला लो। लड़के के ब्याह की खुशी भी हो जायेगी और रुपया उजड़ने से बच जायेगा।"
शाहनी पहले तो भरी भरायी बोली, " मैं उस कंजरी के माथे नहीं लगना चाहती," पर जब दूसरों ने बड़े धीरज से कहा, " यहां तो भाभी तुम्हारा राज है, वह बांदी बन कर आयेगी, तुम्हारे हुक्म में बधीं हुई, तुम्हारे बेटे की खुशी मनाने के लिये। हेठी तो उसकी है, तुम्हारी काहे की? जैसे कमीन कुमने आये, डोम मरासी, तैसी वह।"
बात शाहनी के मन भा गयी। वैसे भी कभी सोते बैठते उसे ख्याल आता था- एक बार देखूं तो सही कैसी है?
उसने उसे कभी देखा नहीं था पर कल्पना जरूर थी - चाहे डर कर, सहम कर, चहे एक नफरत से। और शहर में से गुजरते हुए, अगर किसी कंजरी को टांगे में बैठते देखती तो ना सोचते हुए ही सोच जाती - क्या पता, वही हो?
"चलो एक बार मैं भी देख लूं," वह मन में घुल सी गयी, " जो उसको मेरा बिगाड़ना था, बिगाड़ लिया, अब और उसे क्या कर लेना है! एक बार चन्दरा को देख तो लूं।"
शाहनी ने हामी भर दी, पर एक शर्त रखी - " यहां ना शराब उड़ेगी, ना कबाब। भले घरों में जिस तरह गीत गाये जाते हैं, उसी तरह गीत करवाउंगी। तुम मर्द मानस भी बैठ जाना। वह आये और सीधी तरह गा कर चली जाये। मैं वही चार बतासे उसकी झोली में भी डाल दूंगी जो ओर लड़के लड़कियों को दूंगी, जो बन्ने, सहरे गायेंगी।"
"यही तो भाभी हम कहते हैं।" शाह के दोस्तों नें फूंक दी, "तुम्हारी समझदारी से ही तो घर बना है, नहीं तो क्या खबर क्या हो गुजरना था।"
वह आयी। शाहनी ने खुद अपनी बग्गी भेजी थी। घर मेहेमानों से भरा हुआ था। बड़े कमरे में सफेद चादरें बिछा कर, बीच में ढोलक रखी हुई थी। घर की औरतों नें बन्ने सेहरे गाने शुरू कर रखे थे....।
बग्गी दरवाजे पर आ रुकी, तो कुछ उतावली औरतें दौड़ कर खिड़की की एक तरफ चली गयीं और कुछ सीढ़ियों की तरफ....।
"अरी, बदसगुनी क्यों करती हो, सहरा बीच में ही छोड़ दिया।" शाहनी ने डांट सी दी। पर उसकी आवाज़ खुद ही धीमी सी लगी। जैसे उसके दिल पर एक धमक सी हुयी हो....।
वह सीढ़ियां चढ़ कर दरवाजे तक आ गयी थी। शाहनी ने अपनी गुलाबी साड़ी का पल्ला संवारा, जैसे सामने देखने के लिये वह साड़ी के शगुन वाले रंग का सहारा ले रही हो...।
सामने उसने हरे रंग का बांकड़ीवाला गरारा पहना हुआ था, गले में लाल रंग की कमीज थी और सिर से पैर तक ढलकी हुयी हरे रेशम की चुनरी। एक झिलमिल सी हुयी। शाहनी को सिर्फ एक पल यही लगा - जैसे हरा रंग सारे दरवाजे़ में फैल गया था।
फिर हरे कांच की चूड़ियों की छन छन हुयी, तो शाहनी ने देखा एक गोरा गोरा हाथ एक झुके हुए माथे को छू कर आदाब बजा़ रहा है, और साथ ही एक झनकती हुई सी आवाज़ - "बहुत बहुत मुबारिक, शाहनी! बहुत बहुत मुबारिक...."
वह बड़ी नाजुक सी, पतली सी थी। हाथ लगते ही दोहरी होती थी। शाहनी ने उसे गाव-तकिये के सहारे हाथ के इशारे से बैठने को कहा, तो शाहनी को लगा कि उसकी मांसल बांह बड़ी ही बेडौल लग रही थी...।
(जारी...)
3 comments:
"हेठी तो उसकी है, तुम्हारी काहे की? जैसे कमीन कुमने आये, डोम मरासी, तैसी वह।"
"बात शाहनी के मन भा गयी। वैसे भी कभी सोते बैठते उसे ख्याल आता था- एक बार देखूं तो सही कैसी है ?"
ऐसा लग रहा है जैसे कहानी का यज्ञ चल रहा हो ! बहने दीजिये इसे !
लगता है कंजरी को बुलाने के पीछे शाहनी की उसे देखने की भी प्रबल इच्छा रही होगी ! अगले भाग का इन्तजार ...!
रामराम 1
सच कहूँ तो मेरे से इंतजार नही हो रहा है। लगता है मुझे अपनी किताबों में से इस कहानी को ढूढना ही पडॆगा। कहानी अपने चरम पर हैं और कहानी की कसावट देखते ही बनती हैं। जब मैं पहले भी इनका लेखन पढता तब भी यही हालत होती थी। एक बार शुरु करने के बाद खत्म करके ही मानता था।
ye kahani unke ek katha sangrah mein hai..mujhe bhi padhte waqt behad pasand aayi thi.
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