Tuesday, December 9, 2008

यह कहानी नही ..........

कभी तो कोई इन दीवारों से पूछे
कि कैसे इबादत गुनाह बन गई है .....

अमृता के जहन पर जो साए थे वही उसकी कहानियो में ढलते रहे ..उसकी कहानी के किरदार बनते रहे .चाहे वह शाह जी की कंजरी हो या जंगली बूटी की अंगूरी ..या फ़िर और किरदार .अमृता को लगता कि उनके साथ जो साए हैं वह आज के वक्त के नहीं हैं पता नही किस काल से ,किस वक्त से हैं ,वह ख़ुद बा ख़ुद कहानी के कविता के किरदार बनते चले गए .कई बार ऐसा होता है कि हमारे आस पास कई छोटी -छोटी घटनाएँ घटित होती रहती है और उनको हम जैसे उनको चेतन मन में संभाल लेते हैं ...इसी तरह की एक घटना को अमृता ने तब लिखा जब साहिर को एक रुमाल की जरुँरत पड़ी .तो अमृता ने उसको नया रुमाल दिया और उसका पुराना मैला रुमाल अपने पास संभाल लिया जो साहिर ने वहीँ छोड़ दिया था ...इसी तरह के वाकया को लिखने के लिए उन्होंने कहा कि नज्में तो बहुत लिखी पर इस तरह की छोटी छोटी बातों को संभालने के लिए एक कहानी भी लिखी थी ,जिस को उन्होंने नाम दिया था ...यह कहानी नहीं ..पर यह कहानी थी .........इस में उन्होंने किरदारों के नाम और दिए ....उन्हीं के लफ्जों में ...

यह कहानी नही ..........
[भाग १ ]

पत्थर और चूना बहुत था ,लेकिन अगर थोडी सी जगह पर दीवार की तरह उभर कर खड़ा हो जाता तो घर की दीवारें बन सकती थी ...पर बनीं नहीं ..वह धरती पर फ़ैल गया ,सड़कों की तरह और वे तमाम उम्र उन्ही सड़कों पर चलते रहे ...

सड़कें कभी एक दूसरे के पहलू से भी फटती है ,एक दूसरे के शरीर को चीर कर गुजरती भी हैं ..एक दूजे का हाथ छुडा कर गुम भी हो जाती है और एक दूसरे के गले मिल कर एक दूजे में लीन भी हो जाती हैं ..वे भी एक दूसरे से मिलते रहे .पर सिर्फ़ तब जब उनके पैरों के नीचे बिछी हुई सड़कें आपस में मिल जाती ..

घड़ी पल भर के लिए शायद सड़कें भी चौंक कर रुक जाती और उनके पैर भी ...और तब शायद उनको दोनों को उस घर का ध्यान आ जाता जो शायद बना ही नहीं था ...बन सकता था ,फ़िर भी क्यों नही बना था ? वे दोनों हैरान हो कर पांवों के नीचे की जमीन को ऐसे देखते थे जैसे उस जमीन से पूछ रहे हों ....

और कितनी देर तक उस जमीन को देखते रहते और उसको इस नजर से देखते जैसे वह नजर से उस जमीन में उस घर की नीवं खोद देंगे और अपना एक घर बना लेंगे ...

और कई समय बाद सचमुच वहां वह जादू का घर उभर कर खडा हो जाता और वह दोनों इस तरह से सहज हो जाते मानों बरसों से उस घर में रह रहे हों ...

यह उनकी भरपूर जवानी की बात नहीं ,अब की बात है ,ठंडी उम्र की बात ..कि "अ" एक सरकारी मीटिंग के ' "के शहर गई .. को वक्त ने जितना सरकारी ओहदा दिया है और बराबर की हेसियत के लोग जब मीटिंग से उठे ,सरकारी दफ्तर ने बाहर के शहरों से आने वालों के वापसी के टिकट तैयार रखे हुए थे , ने आगे बढ़ कर का टिकट ले लिया और बाहर आ कर से अपनी गाड़ी में आ कर बैठने को कहा ...

पूछा समान कहाँ है ?
"होटल में !"
ने ड्राइवर से पहले होटल में चलने को कहा और फ़िर वापस घर चलने के लिए

ने कोई आपत्ति नही की .पर तर्क के तौर पर कहा कि "'प्लेन जाने में सिर्फ़ दो घंटे बाकी है होटल हो कर मुश्किल से एयरपोर्ट पहुंचूंगी "
प्लेन कल भी जाएगा परसों भी जायेगा और रोज जायेगा .स ने सिर्फ़ इतना कहा और फ़िर पूरे रास्ते कुछ नही कहा .


होटल से सूटकेस ले कर गाड़ी में रख लिया तो ने फ़िर कहा ..."वक्त थोड़ा है प्लेन मिस हो जाएगा "

ने जवाब दिया कि घर पर माँ इन्तजार रही होगी ...
सोचती रही कि शायद ने माँ को मीटिंग का दिन बताया हुआ था पर वह समझ नही सकी कि "क्यों "बताया हुआ था ?

कभी कभी मन से यह क्यों पूछ लेती थी पर जवाब का इन्तजार नही करती थी .वह जानती थी कि मन के पास कोई जवाब नहीं है .वह चुप बैठी बाहर इमारतों को देखती रही ..
कुछ देर बार इमारतों का सिलसिला टूट गया शहर से बाहर दूर आबादी आ गई और पाम के बड़े बड़े पेडों की कतारे शुरू हो गयीं
समुंदर शायद कहीं पास था अ की साँसे जैसे नमकीन हो गई उसको लगा जैसे पाम के पत्तों में कम्पन आ गया है .... स का घर अब पास था ..

पेड़ पत्तों से लिपटी हुई कॉटेज के पास पहुँच कर गाड़ी खड़ी हो गई भी उतरी पर कॉटेज के पास भीतर जाते हुए वह एक पल के लिए केले के पेड़ के पास खड़ी हो गई ..जी किया अपने कांपते हुए हाथो को वह कांपते हुए केले ले पत्तो के बेच में रख दे ..वह के साथ भीतर जा सकती थी पर हाथों कि वहां जरुरत नहीं थी ..इन हाथों से अब वह न को कुछ दे सकती थी न से कुछ ले सकती थी .....

माँ ने शायद गाड़ी की आवाज़ सुन ली थी .बाहर आके उन्होंने हमेशा की तरह का माथा चूमा और कहा ...आओ बेटी ...
इस बार बहुत दिनों बाद माँ से मिली थी .पर माँ ने जैसे ही उसके सर पर हाथ फेरा उसको लगा जैसे बरसों का बोझ सर से उतर गया और वह फूल सी हलकी हो गई हो उन्होंने उसको भीतर ले जा कर बैठाया और पूछ कि क्या पियोगी बेटी ...

भी तब तक भीतर आ गया था .वह माँ से कहने लगा...." पहले चाय बनावो ....फ़िर खाना !"

ने देखा ड्राइवर उसका सूटकेस अन्दर ला रहा था ..उसने फ़िर से की तरफ देखा और कहा कि वक्त बहुत थोड़ा है बहुत मुश्किल से पहुंचूंगी ...
ने उस से नही ड्राइवर से कहा कल सवेरे जा कर परसों का टिकट ले आना और माँ से कहा ..."तुम कहती थी न कि मेरे कुछ दोस्तों को खाने पर बुलाना है उनको बुला लो कल खाने पर ...."

ने स की जेब की तरफ़ देखा जिस में उसकी वापसी का टिकट था ..और फ़िर कहा कि 'यह टिकट बरबाद हो जायेगा '

माँ रसोई कई तरफ़ जाते हुए रुक गई और बोली कि ..."बेटी टिकट का क्या है!" इतना कह रहा है यह तो रुक जाओ "

पर "क्यों "अ के मन में आया पूछे पर कहा कुछ नहीं ..कुर्सी से उठ कर बरामदे में जा कर खड़ी हो गई .सामने दूर दूर तक पाम के ऊँचे ऊँचें पेड़ थे ..समुन्दर परे था ..उसकी आवाज़ उसको सुनाई दे रही थी .. को लगा सिर्फ़ आज का "क्यों .".नहीं ..उसकी ज़िन्दगी के कितनी ही "क्यों "इस पाम के पेडों की तरह उगे हुए हैं और उनके पत्ते अनेक वर्षों से जैसे हवा में कांप रहे हैं ..

ने घर में मेहमान की तरह चाय पी रात को खाना क्या और घर का गुसलखाना पूछ कर रात के कपड़े बदले .माँ ने अपना कमरा उसको दे दिया और ख़ुद बैठक में जा कर सो गयीं .. सोने वाले कमरे में खड़ी कितनी देर तक सोचतो रही झिझकती रही कि यह कमरा माँ का है वह स्वयं बैठक में सो लेती उसने माँ का कमरा क्यों लिया यहाँ तो माँ को ही सोना चाहिए था .
सोने वाले कमरे में पलंग में परदों में अलमारी में एक घरेलू सी बू बास होती है ..ने इसका एक घूंट सा भरा .पर फ़िर अपनी साँस रोक ली मानो अपनी ही साँसों से डर रही हो ..

बराबर का कमरा का था कोई आवाज़ नही थी वहां ..घडी पहले ने सिरदर्द की शिकायत की थी ,नींद की गोली खायी थी अब तक शायद सो गया था वह ....पर बराबर कमरों वालों की भी अपनी एक बू बास होती है ....अ ने एक घूंट उसका भी पीना चाहा...... पर साँस रुका रहा ..
फ़िर का ध्यान अलमारी के पास फर्श पर पड़े हुए अपने सूटकेस की तरफ गया और उसको हँसी आ गई ..यह देखो मेरा सूटकेस ..मुझे सारी रात मेरी मुसाफिरी की याद दिलाता रहेगा ...
और वह सूटकेस की और देखते हुए थकी हुई सी तकिये पर अपना सर रख कर लेट गई .........

जारी है अगले अंक में भी ..

10 comments:

seema gupta said...

कभी तो कोई इन दीवारों से पूछे
कि कैसे इबादत गुनाह बन गई है .....

" बेहद सुदर ,कहानी पढ़ कर न जाने मन कहाँ खो सा जाता है , "

regards

Anonymous said...

बहुत ही जीवंत कहानी.. अगले भाग जल्दी से पोस्ट कीजिए..

MANVINDER BHIMBER said...

न जाने क्या था जो कहना था
आज मिल कर तुझे
तुझ से मिला था मगर ...
जाने क्या कहा मैनें

विष्णु बैरागी said...

अमृताजी को पढना जितना खुशगवार है उतना ही तकलीफदेह भी । पढते-पढते दिमाग सुन्‍न होते जाता है और बदन का रोम-रोम, दिल बन जाता है । पढने वाले का वजूद गुम हो जाता है और पढना खत्‍म करने के बाद अपने में लौटना मानो फिर से जन्‍म लेने जैसा हो जाता है ।
आप इस सबके लिए हमें मौका दे रही हैं । तय नहीं कर पा रहा हूं कि आपका शुक्रिया अदा करूं या आप पर गुस्‍सा ?

नीरज गोस्वामी said...

ये कहानी ऐसी है जिसे कितनी बार भी पढ़ा जा सकता है...साधुवाद इसे फ़िर से पढ़वाने के लिए...अगली कड़ी का इन्तेजार है.
नीरज

आलोक साहिल said...

agle ank ki pratiksha mein.
ALOK SINGH "SAHIL"

B said...

wow! Lovely! and I agree with all the comments here. Reading Amrita Pritam makes one happy and deeply sad too, because of the beauty of her words and acute observations.

waiting for the next part!

Arvind Mishra said...

Sublime !

Manish Kumar said...

badi rochak lagi ab tak ye kahani..aage ki kadi ka intezaar hai

Manuj Mehta said...

आपको पढ़ना तो हमेशा ही एक नए अध्याय से जुड़ना लगता है. आपकी लेखनी की तहे दिल से प्रणाम.