Thursday, December 25, 2008

दोस्तों !दुआ मांगों कि मौसम खुशगवार हो !

दोस्तों !दुआ मांगों कि मौसम खुशगवार हो !
यह कुल्हाडियों का मौसम बदल जाए
पेड़ों की उम्र पेड़ों को नसीब हो
टहनियों के आँगन में
हरे पत्तों को जवानी की दुआ लगे
मुसाफिरों के सिरों को छाया -
और राहों को फूलों की आशीष मिले !

२००८ विदा लेने को है .नया साल आने को है ...नया आने वाला साल सबके लिए ढेर सारी खुशियाँ ले कर आए हाँ यही दुआ मांगते हैं ..आज २६ -१२ है एक महीने पहले जो हुआ वह कभी नही भुलाया जा सकेगा ...

दुआ ...

दोस्तों ! उदासियों का मौसम बहुत लंबा है
हमारा एक शायर है कई सालों से --
जब भी कोई साल विदा होता है
तो कैद बामुशक्कत काट कर
कैद से रिहा होते साल को मिलता है
पाले में ठिठुरते कन्धों पर
उसका फटा हुआ खेस लिपटाता
उसे अलविदा कहता
वक्त के किसी मोड़ पर छोड़ आता है ..
फ़िर किसी दरगाह पर अकेला बैठ कर
नए साल की दुआ करता है --
कि आने वाले ! खैर से आना ,खेरियत से आना !

जिस तरह वक्त को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है .क्राइस्ट से पहले और क्राइस्ट के बाद .इसी तरह अमृता ने दर्शन को दो हिस्सों में तकसीम किया ..एक अन्तर अनुभव के पहले और एक अन्तर अनुभव के बाद ..वक्त को तकसीम करने की यह तरकीब पश्चिम से आई इस लिए" क्राइस्ट "का नाम सामने आया .पूरब से आती तो कोई और नाम होता ..इस लिए यह तकसीम सहूलियत के हिसाब से जबकि दर्शन की तकसीम बहुत गहरे अर्थों में हैं ....
मजहब के नाम पर आम लोगों को बहकाया जाता रहा है ..धर्म तो मन की अवस्था का नाम है .उसकी जगह मन में होती है ,मस्तक में होती है और घर के आँगन में होती है लेकिन हम उसको मन मस्तक आँगन से उठा कर बाजार तक ले जाते हैं ..अगर देश को देश की मिटटी को एक समझ लिया जाए तो अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के टकराव का सवाल ही पैदा न हो ..कोई एक अकेला भी मिटटी को उतना प्यारा होता है जितने हजारों और लाखों ....अगर न समझा जाए इस को को हमारे देश की मिटटी सुर्ख खून से भीग कर रो उठेगी ..दागिस्तान की एक गाली है ..

अरे जा ! तुझे अपने महबूब का नाम भूल जाए ! सचमुच कितनी भयानक गाली है -इंसान के पास क्या रह जायेगा ,जब उसको उसके महबूब का नाम ही भूल जाए ..इंसान का महबूब उसकी इंसानियत है ..और हम आज उसी का नाम भूल गए हैं .....आज महजब के नाम पर जितना कत्ल खून हुए हैं .वह हमारे देश की आजादी को एक बहुत बड़ा उलाहना है हम पर .और अब इसी तरह के माहौल में नया साल आने को है ...अमृता के लफ्जों में ...

जैसे रातों की नींद ने अपनी उँगलियों में
सपने का एक जलता हुआ कोयला पकड़ लिया हो ..
जैसे दिल के फिकरे से कोई अक्षर मिट गया हो
जैसे विश्वास के कागज पर स्याही बिखर गई हो
जैसे समय के होंठो से एक ठंडा साँस निकल गया हो
जैसे आदमजात की आंखों में एक आंसू भर आया हो
नया साल कुछ ऐसे आया ...
जैसे इश्क की जुबान पर एक छाला उभर आया हो
जैसे सभ्यता की कलाई की एक चूड़ी टूट गई हो .
जैसे इतिहास की अंगूठी से एक मोटी गिर गया हो
जैसे धरती को आसमान ने एक बहुत उदास ख़त लिखा हो
नया साल कुछ ऐसे आया .......

धर्म चिन्तन की आत्मा का होता है ..आत्मा लोप हो जाए महजब एक जड़ता बन जाता है ...धर्म आँखों की रौशनी का होता है और यह सदियों पुरानी दुःख की बात है कि धर्म के नाम पर इंसानों के आंखों की बलि मांगी गई और चिंतन से तर्कशक्ति की बलि ....मोहब्बत और मजहब दो ऐसी घटनाएं हैं ,इलाही घटनाएँ ,जो लाखों लोगों में से कभी किसी एक साथ घटित होती है .मोहब्बत की घटना कभी बाहर से नही होती भीतर से होती है .,अंतर से होती है .और मजहब की घटनाएँ कभी बाहर से नहीं होती ..अन्तर से होती है ......

एक थी राबिया बसरी ..जिसके बारे में कहा जाता है कि वह एक दिन वह एक हाथ में मशाल और एक हाथ में पानी ले कर भागती हुई गांव गांव से गुजरने लगी ...बहुत से लोग पूछने लगे यह क्या कर रही हो ? कहते हैं राबिया ने कहा ..".मेरे लाखों मासूम लोग हैं जिन्हें बहिश्त का लालच दे कर उनकी आत्मा को गुमराह किया जा रहा है और उन्हें दोजख का खौफ दे कर उनकी आने वाली नस्लों को खौफजदा किया जा रहा है .मैं इस आग से बहिश्त को जलाने जा रही हूँ और इस पानी से दोजख को डुबोने जा रही हूँ ...."

और अब चलते चलते फ़िर से अमृता की बात उन्ही के लफ्जों में ...

मैं साल मुबारक किस से कहूँ ? किस से कहूँ ?
अगर कोई हो ..
इल्म के सूरज वंशी जैसा ,कलम के चन्द्रवंशी जैसा
तो मैं साल मुबारक किस से कहूँ .मैं साल मुबारक किस से कहूँ
अगर कोई हो ...
इस मिटटी की रहमत जैसा ..इस काया की अजमत जैसा
मैं साल मुबारक किस से कहूँ ..मैं साल मुबारक किस से कहूँ ?
अगर कोई हो ....
मन सागर के मंथन जैसा और मस्तक के चिंतन जैसा
मैं साल मुबारक किस से कहूँ .मैं साल मुबारक किस से कहूँ ?
अगर कोई हो ..
धर्म लफ्ज़ के अर्थों जैसा .कर्म लफ्ज़ के अर्थों जैसा
मैं साल मुबारक किस से कहूँ ..मैं साल मुबारक किस से कहूँ ?

9 comments:

Anonymous said...

जैसे इश्क की जुबान पर एक छाला उभर आया हो
जैसे सभ्यता की कलाई की एक चूड़ी टूट गई हो .
जैसे इतिहास की अंगूठी से एक मोटी गिर गया हो
जैसे धरती को आसमान ने एक बहुत उदास ख़त लिखा हो
नया साल कुछ ऐसे आया .......

sach har lafz kuch bayan karta dard sa,naye saal pe itana depth mein amrutaji ke alawa shayad hi koi likhe,bahut achhi post.

ताऊ रामपुरिया said...

.".मेरे लाखों मासूम लोग हैं जिन्हें बहिश्त का लालच दे कर उनकी आत्मा को गुमराह किया जा रहा है और उन्हें दोजख का खौफ दे कर उनकी आने वाली नस्लों को खौफजदा किया जा रहा है .मैं इस आग से बहिश्त को जलाने जा रही हूँ और इस पानी से दोजख को डुबोने जा रही हूँ ...."

आज तो आपने पूरा ही डुबो दिया इस सागर मे ! आज यहां महान सुफ़ी फ़कीर राबिया का जिक्र भाव विभोर कर गया ! शायद ये वही राबिया हैं जिन्होने अपने धर्म गन्थ से "शैतान को पत्थर मारो" वाक्य ही निकाल दिया था ! और जब उनके गुरु ने नाराज होकर पूछा कि ये कौन बद्तमीज है जिसने ये हरकत की है ?

राबिया बोली थी - हजूर ..ये मैने ही किया है क्योंकि जबसे ज्ञान हुआ उस खुदा का तबसे मुझे किसी मे शैतान ही नही दिखता तो किसको पत्थर मारुं ?

राबिया के बारे मे और जानने की इच्छा है कुछ बुक्स की जानकारी हो तो अवश्य देने की क्रुपा किजियेगा !

रामराम !

डॉ .अनुराग said...

विचारो को झिंझोड़ने वाली पोस्ट...

कंचन सिंह चौहान said...

बौद्धिकता, दार्शनिकता, प्रेम और सौंदर्य का जो समावेश अमृता जी में है, वो आश्चर्यजनक है।

कुछ चीजें कभी पुरानी नही पड़ती जैसे ये राबिया का किस्सा....!

Vinay said...

बहुत बढ़िया, भई, संवेदनशील

---
चाँद, बादल, और शाम
http://prajapativinay.blogspot.com/

गुलाबी कोंपलें
http://www.vinayprajapati.co.cc

सुशील छौक्कर said...

विचारों से भरी, सोचने के लिए मजबूर करती पोस्ट।
".मेरे लाखों मासूम लोग हैं जिन्हें बहिश्त का लालच दे कर उनकी आत्मा को गुमराह किया जा रहा है और उन्हें दोजख का खौफ दे कर उनकी आने वाली नस्लों को खौफजदा किया जा रहा है .मैं इस आग से बहिश्त को जलाने जा रही हूँ और इस पानी से दोजख को डुबोने जा रही हूँ ...."
वैसे आज के समय ऐसे इंसानो की जरुरत हैं। वैसे ये राबिया जी है कौन। शायद मैने कभी नही पढा। कुछ जानकारी अवशय दीजिऐगा इनके बारे में।

seema gupta said...

इस मिटटी की रहमत जैसा ..इस काया की अजमत जैसा
मैं साल मुबारक किस से कहूँ ..मैं साल मुबारक किस से कहूँ ?
" bhut shandar prstuti..."

regards

नीरज गोस्वामी said...

अब अमृता जी के लिखे पे क्या कहा जाए...हम खुशकिस्मत हैं की उन्हें पढ़ पा रहे हैं....शुक्रिया आपका उनसे बार बार रूबरू करवाने का...बहुत पुण्य का काम कर रहीं हैं आप.
नीरज

दिगम्बर नासवा said...

अमृता जी के अल्फाज़ और आप की सोच ने बीते हुवे साल और आने वाले समय का जो चित्र बनाया है, लगता है यथार्थ के बिल्कुल करीब है,

नया साल कुछ ऐसे आया ...
जैसे इश्क की जुबान पर एक छाला उभर आया हो
जैसे सभ्यता की कलाई की एक चूड़ी टूट गई हो .
जैसे इतिहास की अंगूठी से एक मोटी गिर गया हो
जैसे धरती को आसमान ने एक बहुत उदास ख़त लिखा हो
नया साल कुछ ऐसे आया .......

खट्टी मीठी यादे ले कर बीतने को करीब है यह साल
नयी उमीदें ले कर आएगा नया साल