Sunday, December 28, 2008

अमृता जी की कहानियां और उपन्यास पढ़ते हुए हमेशा ऐसा ही लगता है जैसे कोई कविता पढ़ रहे हों। उनकी हर रचना में उनके काविताओं की झलक मिलती है।

उनके पात्र अनोखे हैं। अपनी किताब ’यह कलम यह कागज यह अक्षर’ में उन्होंने अपनी रचनाओं और पात्रों के बारे में लिखा था :

बोधी गुंपा की तरफ से जब किसी कुसूरवार को सजा दी जाती है, तो वह पत्थरों पर, महात्माबुद्ध के श्लोक अंकित करने की सजा होती है। वह कितने दिन, कितने महीने या कितने साल हाथ में हथौड़ा-छेनी लेकर, पत्थरों पर वह श्लोक अंकति करता रहेगा उसके कसूर की गंभीरता से तय होता है।

मुझे लगता है मुहब्बत ने अपने सुनहरी गुंपा में बैठकर, बोधी गुंपा की तरह, मेरे लिए भी यही सज़ा सुना दी और शायद मेरे तसव्वुर में मेरी मुहब्बत का कसूर बहुत बड़ा है, संगीन जुर्म, इसलिए पूरी जिन्दगी के लिए यह सज़ा मुझे दी गई, और मैं तमाम ज़िंदगी हाथ में कलम लेकर, कागज़ों पर वही लिखती रही जो मेरे चिंतन का और मेरे तरवैयुत का फरमान था.... अपने तरवैयुत से मेरी मुहब्बत का रिश्ता क्या है ? उसी की बात कहने के लिए कुछ पंक्तियाँ सामने आती हैं— हमारे देश की तकसीम के वक्त बहुत कुछ भयानक हुआ। मेरे उपन्यास ‘डाक्टर देव’ के किरदार को जब ज़ख्मी लोगों की महरम पट्टी के लिए बुलाया जाता है तो वह तड़प कर कहता है, ‘‘मनु ! कौन–सा मुंह लेकर उन जख्मियों के पास जाऊं ? वे कहेंगे—आज इन्सान हमें पट्टी बांधने के लिए आया है, इनकी मरहम पट्टी तब कहां थी, जब रास्ता चलते, इसने पीछे से हमारी पीठ पर छुरा घोंप दिया था ? कातिल का चेहरा भी तो मेरे चेहरे जैसा रहा होगा.....’’ यह कलम यह कागज यह अक्षर

इसी तरह ‘पिंजर’ नावल की पूरो, दो मज़हबों की टक्कर में टूट जाती है। लेकिन जानती है कि नफरत के दाग को, नफरत के पानी से नहीं धोया जा सकता, और जब दोनों देशों की अगवाशुदा लड़कियां, अपने-अपने देश को लौटाई जाती हैं, तो पूरो कहती है, ‘‘चाहे कोई लड़की हिन्दू हो या मुसलमान जो भी अपने ठिकाने पर पहुँच रही है, उसी के साथ मेरी आत्मा भी ठिकाने पर पहुंच रही है....’’

नज़्म, कहानी या नावल, मेरी नज़र में एक माध्यम है, बात को कहने का। मेरा एक नावल था ‘दिल्ली की गलिया’ जिसका किरदार नासिर एक मुसव्विर है, और एक अखबार के लिए कार्टून भी बनाता है। उसी के एक कार्टून में, अंग्रेज़ी का एक प्रोफेसर अपने विद्यार्थियों से पूछता है, ‘आजकल कौन-सा लफ़्ज आम जिंदगी में सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है ?’’ तो एक गंभीर विद्यार्थी उठकर कहता है, ‘‘सह ! यह ‘ऐंटी’ लफ़्ज है, क्योंकि आजकल लोग ऐंटी मैरिट होते जा रहे हैं, ऐंटी विमैन, ऐंटी माईंड।’’

इसी उपन्यास में एक किरदार कामिनी है, जो एक अखबार का कालम लिखती है। उसी के एक कालम के अलफाज़ हैं, ‘‘कभी डायर नाम के हाकिम ने गोलियां चलाई थीं, जिनके कुछ एक निशान आज भी जलियांवाला की दीवार पर दिखाई देते हैं। लेकिन सिस्टम नाम की चीज, यानी वक्त का निज़ाम, जो गोलियां चला रहा है—मेहनत, हक, सचाई, ईमान और कद्र-ओ-कीमत जैसे कितने ही अल्फाज़ हो रहे हैं। यह बात अलग है कि उन गोलियों के निशान किसी दीवार पर दिखाई नहीं देते।’’

औरत की पाकीज़गी का ताल्लुक, समाज ने कभी भी, औरत के मन की अवस्था से नहीं पहचाना, हमेशा उसके तन से जोड़ दिया। इसी दर्द को लेकर मेरे ‘एरियल’ नावल की किरदार ऐनी के अलफाज़ हैं, ‘‘मुहब्बत और वफा ऐसी चीज़ें नहीं है, जो किसी बेगाना बदन के छूते ही खत्म हो जाएं। हो सकता है—पराए बदन से गुज़र कर वह और मज़बूत हो जाएं जिस तरह इन्सान मुश्किलों से गुज़र कर और मज़बूत हो जाता है.....’’ औरत और मर्द का रिश्ता और क्या हो सकता था, मैं इसी बात को कहना चाहती थी कि एक कहानी लिखी, ‘मलिका’। मलिका जब बीमार है, सरकारी अस्पताल में जाती है, तो कागज़ी कार्रवाई पूरी करने के लिए डाक्टर पूछता है तुम्हारी उम्र क्या होगी ?

मलिका कहती है, ‘‘वही, जब इन्सान हर चीज के बारे में सोचना शुरू करता है, और फिर सोचता ही चला जाता है.....’’ डाक्टर पूछता है, ‘‘तुम्हारे मालिक का नाम ?’’ मलिका कहती है, ‘‘ मैं घड़ी या साइकिल नहीं, जो मेरा मालिक हो, मैं औरत हूं....’’ डाक्टर घबराकर कहता है, ‘‘मेरा मतलब है—तुम्हारे पति का नाम ?’’ मलिका जवाब देती है, ‘‘मैं बेरोज़गार हूं।’’ डाक्टर हैरान–सा कहता है, ‘‘भई, मैं नौकरी के बारे में नहीं पूछ रहा...’’ तो मलिका जवाब देती है, ‘‘वही तो कह रही हूं। मेरा मतलब है किसी की बीवी नहीं लगी हुई’’, और कहती है, ‘‘हर इन्सान किसी-न-किसी काम पर लगा हुआ होता है, जैसे आप डाक्टर लगे हुए हैं, यह पास खड़ी हुई बीबी नर्स लगी हुई है। आपके दरवाजे के बाहर खड़ा हुआ आदमी चपरासी लगा हुआ है।

इसी तरह लोग जब ब्याह करते हैं—जो मर्द खाविंद लग जाते हैं, और औरतें बीवियां लग जाती हैं...’’ समाज की व्यवस्था में किस तरह इन्सान का वजूद खोता जाता है, मैं यही कहना चाहती थी, जिसके लिए मलिका का किरदार पेश किया। जड़ हो चुके रिश्तों की बात करते हुए, मलिका कहती है, ‘‘क्यों डाक्टर साहब, यह ठीक नहीं ? कितने ही पेशे हैं—कि लोग तरक्की करते हैं, जैसे आज जो मेजर है, कल को कर्नल बन जाता है, फिर ब्रिगेडियर, और फिर जनरल। लेकिन इस शादी-ब्याह के पेशे में कभी तरक्की नहीं होती। बीवियां जिंदगी भर बीवियां लगी रहती है, और खाविंद ज़िंदगी भर खाविंद लगे रहते हैं....’’

उस वक्त डाक्टर पूछता है, ‘इसकी तरक्की हो तो क्या तरक्की हो ?’’ तब मलिका जवाब देती है, ‘‘डाक्टर साहब हो तो सकती है, पर मैंने कभी होते हुए देखी नहीं। यही कि आज जो इन्सान खाविंद लगा हुआ है, वह कल को महबूब हो जाए, और कल जो महबूब बने वह परसों खुदा हो जाए....’’ इसी तरह-समाज, मजहब और रियासत को लेकर वक्त के सवालात बढ़ते गए, तो मैंने नावल लिखा, ‘यह सच है’ इस नावल के किरदार का कोई नाम नहीं, वह इन्सान के चिन्तन का प्रतीक है, इसलिए वह अपने वर्तमान को पहचानने की कोशिश करता है, और इसी कोशिश में वह हज़ारों साल पीछे जाकर—इतिहास की कितनी ही घटनाओं में खुद को पहचानने का यत्न करता है—

उसे पुरानी घटना याद आई, जब वह पांच पांडवों में से एक था, और वे सब द्रौपदी को साथ लेकर वनों में विचर रहे थे। बहुत प्यास लगी तो युधिष्ठीर ने कहा था, ‘जाओ नकुल पानी का स्रोत तलाश करो !’’ जब उसने पानी का स्रोत खोज लिया था, तो किनारे पर उगे हुए पेड़ से आवाज़ आई थी, ‘‘हे नकुल ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना पानी मत पीना, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी’’—लेकिन उसने आवाज़ की तरफ ध्यान नहीं दिया, और जैसे ही सूखे हुए हलक से पानी की ओक लगाई, वह मूर्च्छित होकर वहीं गिर गया था....

और मेरे नावल का किरदार, जैसे ही पानी का गिलास पीना चाहती है, यह आवाज़ उसके मस्तक से टकरा जाती है, ‘‘हे आज के इन्सान ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना गिलास का पानी मत पीना....’’ और उसे लगता है—वह जन्म-जन्म से नकुल है, और उसे मूर्च्छित होने का शाप लगा हुआ है...वह कभी भी तो वक्त के सवालों का जवाब नहीं दे पाया...

इसी नावल में उसे याद आता है, ‘‘मैंने एक बार जुआ खेला था। सारा धन, हीरे, मोती दांव पर लगा दिए थे, और मैं हार गया था मैंने अपनी पत्नी भी दांव पर लगा दी थी...’’ और हवा में खड़ी हुई आवाज़ उससे पूछती है, ‘‘मैं दुर्योधन की सभा में खड़ी हुई द्रौपदी हूं, पूछना चाहती हूं—कि युधिष्ठिर जब अपने आपको हार चुके, तो मुझे दांव पर लगाने का उन्हें क्या अधिकार था ?’’ मैं इस सवाल के माध्यम से कहना चाहती हूं, कि जब इन्सान अपने आपको दांव पर लगा चुका, और हार चुका है—तो समाज के नाम पर दूसरे इन्सानों को मजहब के नाम पर खुदा की मखलूक को, और रियासत के नाम पर अपने-अपने देश के वर्तमान भविष्य को दांव पर लगाने का उसे क्या अधिकार है ?

इन्सान जो है, और इन्सान जो हो सकता है—यही फासला ज़हनी तौर पर मैंने जितना भी तय किया, उसी की बात ज़िंदगी भर कहती रही....बहुत निजी अहसास को कितनी ही नज़्मों के माध्यम से कहना चाहा— हथेलियों पर इश्क की मेंहदी का कुछ दावा नहीं हिज्र का एक रंग है, खुशबू तेरे जिक्र की.... एक दर्द, एक ज़ख्म एक कसक दिल के पास थी रात को सितारों की रकम—उसे ज़रब दे गई... और वक्त-वक्त पर जितने भी सवालात पैदा होते रहे—उसी दर्द का जायज़ा लेते हुए कितनी ही नज़्में कहीं— गंगाजल से लेकर, वोडका तक—यह सफरनामा है मेरी प्यास का... सादा पवित्र जन्म के सादा अपवित्र कर्म का—सादा इलाज.... किसी महबूब के चेहरे को—एक छलकते हुए गिलास में देखने का यत्न.... और अपने बदन पर—बिलकुल बेगाना ज़ख्म को भूलने की ज़रूरत... यह कितने तिकोन पत्थर हैं

जो किसी पानी की घूंट से—मैंने गले में उतारे हैं कितने भविष्य हैं—जो वर्तमान से बचाए हैं और शायद वर्तमान भी—वर्तमान से बचाया है.... इलहाम के धुएं से लेकर, सिगरेट की राख तक.... हर मज़हब बरड़ाए हर फलसफा लंगड़ाए हर नज़्म तुतलाए— और कहना-सा चाहे— कि हर सल्तनत  सिक्के की होती है, बारूदी की होती है और हर जन्मपत्री—आदम की जन्म की एक झूठी गवाही देती है...

पैर में लोहा डले कान में पत्थर ढले सोचों का हिसाब रुके सिक्के का हिसाब चले...

और लगा—

आज मैंने अपने घर का नम्बर मिटाया है

गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है

हर सड़क की हर दिशा का नाम पोंछ दिया है......

गर आपने मुझे कभी तलाश करना है...

तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ

यह एक शाप है

एक वर है और जहां भी स्वतंत्र रूह की झलक पड़े

समझना वह मेरा घर है....

बोधी गुंपा का मैंने हमेशा शुक्रिया अदा किया है—जिसने अपने कशूरवार के लिए पत्थरों पर महात्मा बुद्ध के श्लोक अंकित करने की सज़ा कायम की—और उसी खूबसूरत रिवायत में साए में खड़े होकर, मुहब्बत में भी अपने सुनहरी गुंपा में बैठकर, मेरे लिए वही सज़ा सुना दी और मेरे चिन्तन का जो भी फरमान था—मैं उसे तमाम ज़िंदगी कागज़ों पर लिखती रही। सोचती हूं—खुद के तरवैयुल से, अपने देश से, अपने देश के लोगों से, और तमाम दुनिया के लोगों से—यानी खुदा की तखलीक से, मेरी मुहब्बत का गुनाह सचमुच बहुत बड़ा है, बहुत संगीन....

Thursday, December 25, 2008

दोस्तों !दुआ मांगों कि मौसम खुशगवार हो !
यह कुल्हाडियों का मौसम बदल जाए
पेड़ों की उम्र पेड़ों को नसीब हो
टहनियों के आँगन में
हरे पत्तों को जवानी की दुआ लगे
मुसाफिरों के सिरों को छाया -
और राहों को फूलों की आशीष मिले !

२००८ विदा लेने को है .नया साल आने को है ...नया आने वाला साल सबके लिए ढेर सारी खुशियाँ ले कर आए हाँ यही दुआ मांगते हैं ..आज २६ -१२ है एक महीने पहले जो हुआ वह कभी नही भुलाया जा सकेगा ...

दुआ ...

दोस्तों ! उदासियों का मौसम बहुत लंबा है
हमारा एक शायर है कई सालों से --
जब भी कोई साल विदा होता है
तो कैद बामुशक्कत काट कर
कैद से रिहा होते साल को मिलता है
पाले में ठिठुरते कन्धों पर
उसका फटा हुआ खेस लिपटाता
उसे अलविदा कहता
वक्त के किसी मोड़ पर छोड़ आता है ..
फ़िर किसी दरगाह पर अकेला बैठ कर
नए साल की दुआ करता है --
कि आने वाले ! खैर से आना ,खेरियत से आना !

जिस तरह वक्त को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है .क्राइस्ट से पहले और क्राइस्ट के बाद .इसी तरह अमृता ने दर्शन को दो हिस्सों में तकसीम किया ..एक अन्तर अनुभव के पहले और एक अन्तर अनुभव के बाद ..वक्त को तकसीम करने की यह तरकीब पश्चिम से आई इस लिए" क्राइस्ट "का नाम सामने आया .पूरब से आती तो कोई और नाम होता ..इस लिए यह तकसीम सहूलियत के हिसाब से जबकि दर्शन की तकसीम बहुत गहरे अर्थों में हैं ....
मजहब के नाम पर आम लोगों को बहकाया जाता रहा है ..धर्म तो मन की अवस्था का नाम है .उसकी जगह मन में होती है ,मस्तक में होती है और घर के आँगन में होती है लेकिन हम उसको मन मस्तक आँगन से उठा कर बाजार तक ले जाते हैं ..अगर देश को देश की मिटटी को एक समझ लिया जाए तो अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के टकराव का सवाल ही पैदा न हो ..कोई एक अकेला भी मिटटी को उतना प्यारा होता है जितने हजारों और लाखों ....अगर न समझा जाए इस को को हमारे देश की मिटटी सुर्ख खून से भीग कर रो उठेगी ..दागिस्तान की एक गाली है ..

अरे जा ! तुझे अपने महबूब का नाम भूल जाए ! सचमुच कितनी भयानक गाली है -इंसान के पास क्या रह जायेगा ,जब उसको उसके महबूब का नाम ही भूल जाए ..इंसान का महबूब उसकी इंसानियत है ..और हम आज उसी का नाम भूल गए हैं .....आज महजब के नाम पर जितना कत्ल खून हुए हैं .वह हमारे देश की आजादी को एक बहुत बड़ा उलाहना है हम पर .और अब इसी तरह के माहौल में नया साल आने को है ...अमृता के लफ्जों में ...

जैसे रातों की नींद ने अपनी उँगलियों में
सपने का एक जलता हुआ कोयला पकड़ लिया हो ..
जैसे दिल के फिकरे से कोई अक्षर मिट गया हो
जैसे विश्वास के कागज पर स्याही बिखर गई हो
जैसे समय के होंठो से एक ठंडा साँस निकल गया हो
जैसे आदमजात की आंखों में एक आंसू भर आया हो
नया साल कुछ ऐसे आया ...
जैसे इश्क की जुबान पर एक छाला उभर आया हो
जैसे सभ्यता की कलाई की एक चूड़ी टूट गई हो .
जैसे इतिहास की अंगूठी से एक मोटी गिर गया हो
जैसे धरती को आसमान ने एक बहुत उदास ख़त लिखा हो
नया साल कुछ ऐसे आया .......

धर्म चिन्तन की आत्मा का होता है ..आत्मा लोप हो जाए महजब एक जड़ता बन जाता है ...धर्म आँखों की रौशनी का होता है और यह सदियों पुरानी दुःख की बात है कि धर्म के नाम पर इंसानों के आंखों की बलि मांगी गई और चिंतन से तर्कशक्ति की बलि ....मोहब्बत और मजहब दो ऐसी घटनाएं हैं ,इलाही घटनाएँ ,जो लाखों लोगों में से कभी किसी एक साथ घटित होती है .मोहब्बत की घटना कभी बाहर से नही होती भीतर से होती है .,अंतर से होती है .और मजहब की घटनाएँ कभी बाहर से नहीं होती ..अन्तर से होती है ......

एक थी राबिया बसरी ..जिसके बारे में कहा जाता है कि वह एक दिन वह एक हाथ में मशाल और एक हाथ में पानी ले कर भागती हुई गांव गांव से गुजरने लगी ...बहुत से लोग पूछने लगे यह क्या कर रही हो ? कहते हैं राबिया ने कहा ..".मेरे लाखों मासूम लोग हैं जिन्हें बहिश्त का लालच दे कर उनकी आत्मा को गुमराह किया जा रहा है और उन्हें दोजख का खौफ दे कर उनकी आने वाली नस्लों को खौफजदा किया जा रहा है .मैं इस आग से बहिश्त को जलाने जा रही हूँ और इस पानी से दोजख को डुबोने जा रही हूँ ...."

और अब चलते चलते फ़िर से अमृता की बात उन्ही के लफ्जों में ...

मैं साल मुबारक किस से कहूँ ? किस से कहूँ ?
अगर कोई हो ..
इल्म के सूरज वंशी जैसा ,कलम के चन्द्रवंशी जैसा
तो मैं साल मुबारक किस से कहूँ .मैं साल मुबारक किस से कहूँ
अगर कोई हो ...
इस मिटटी की रहमत जैसा ..इस काया की अजमत जैसा
मैं साल मुबारक किस से कहूँ ..मैं साल मुबारक किस से कहूँ ?
अगर कोई हो ....
मन सागर के मंथन जैसा और मस्तक के चिंतन जैसा
मैं साल मुबारक किस से कहूँ .मैं साल मुबारक किस से कहूँ ?
अगर कोई हो ..
धर्म लफ्ज़ के अर्थों जैसा .कर्म लफ्ज़ के अर्थों जैसा
मैं साल मुबारक किस से कहूँ ..मैं साल मुबारक किस से कहूँ ?

Sunday, December 21, 2008

राजा !तू कैसे राज करेगा -
सिर पर कोई आकाश न रहा
पैरों के नीचे कोई जमीन नही रही
मैं अक्षरों में भी भीगती रही
आंसुओं में भी भीगती रही
लिखती रही ....

अमृता ने हिन्दुस्तान पकिस्तान बंटवारे के दर्द को जिस तरह अपनी कलम से उतारा उसको कभी भुला नही जा सकता है ..कभी वह वारिस शाह से कहती हुई नज़र आई ...
उठो ! वारिस शाह
कहीं कब्र में से बोलो
और इश्क की कहानी का
कोई नया वर्क खोलो ...

यह नज्म तब जगह जगह गई जाने लगी ..पर इसके साथ ही कुछ सवाल और कुछ गालियाँ भी अमृता के हिस्से आयीं ..कि उन्होंने यह वारिस शाह मुसलमान से मुताखिब हो कर क्यों लिखा ? सिख तबके के लोग कहते कि इसको तो गुरु नानक से मुताखिब होना चाहिए था ...यह सब चलता रहा और अमृता की कलम अपना काम करती रही ......हिन्दुस्तान का बंटवारा इतिहास की छाती का जख्म बनता गया .कोई नही जान पायेगा कि इसी बंटवारे में न जाने कितने सपने कत्ल कर दिए और उस में कई मासूम लड़कियों के सपने जो कत्ल हुए ,कुछ इस तरह से उनकी कलम से कागज पर बिखर गए ..

मैं नसीब जली पंजाब की बेटी
मैं बोल कर क्या कहूँगी
मेरी जुबान तो काट दी गई
हाथ भी बंध गए ,पैर भी बंधे हुए
और माथे की किस्मत
काले नाग सी बैठी हुई है .

एक तूफ़ान आया
यह बदन बाकी है
पर नसीब डूब गया

अरे राहगुजर
उस पार ,कोई मिले तो कहना
अब मेरे घुटने टूट गए हैं
मांझियों के हाथो
पतवार छूट गए हैं
अब नही जानती .--मैं कहाँ हूँ ...
माँ का एक आँगन था -
जाने कहाँ गया ....

न बाबुल न भाई
न मेहँदी -- न डोली
मैं कैसी ब्याही ...

बस इतना जानती हूँ
कि इसी बहाने धरती पर
धरम और ईमान बिकता है ..
यहाँ देश की नार बिकती है ......

उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है जिसके बदन की जवानी जबर से माँ बना दिया जाता है ..और जिसके बच्चे सवाल करते हैं उस रोती हुई माँ और गुमशुदा बाप से जो उसको विरासत में मिलते हैं ..

मेरी माँ की कोख मजबूर थी
मैं भी तो एक इन्सान हूँ
आजादियों की टक्कर में
उस चोट का निशाना हूँ
उस हादसे का जख्म जो माँ के माथे पर लगना था
और माँ की कोख को मजबूर होना था ..

मैं माँ के जख्म का निशाना हूँ ,
मैं माँ के माथे का दाग हूँ ...............

उन्होंने उस वक्त के हालात पर एक उपन्यास लिखा था "पिंजर "..जिसकी कहानी बंटवारे से पहले शुरू होती है .और बंटवारे के उस मुकाम पर आती है ..जब दोनों सरकारें अपनी अपनी अगवा शुदा लडकियां ढूंढ़ रहे हैं ..और उस कहानी में पूरो वह है जो बंटवारे से पहले उठा ली गई थी .एक निजी दुश्मन के हाथो ..और जिस को माँ बाप लेने से इनकार कर देतें हैं .वह एक घटना थी ...लेकिन बंटवारें के समय इस तरह की घटनाएँ घर घर में होने लगी थी ..अब उठायी हुई लड़कियों को उनके माँ बाप तलाश कर रहे थे ....पूरो अपनी भाभी को तलाश करती है जो बंटवारे के समय उठा ली गई थी ...और उसको अपने भाई के हाथों सौंपती है तो उस वक्त पूरो के माँ बाप भी उसको लेने को तैयार होते हैं पर पूरो कहती है ..कि नहीं !!अब नहीं ..अब जो भी लड़की ..चाहे वह हिंदू हो या या चे मुसलमान जो भी ठिकाने पर पहुँच रही है समझाना पूरो की आत्मा ठिकाने पहुँच रही है .... ..यह उपन्यास आज भी दिल पर दस्तक देता है .और पूरो के चरित्र को आँखों के सामने सजीव कर देता है ......

इस पेड़ का क्या होगा ?
इस छाया का क्या होगा ?
नफरत के कीडे -तो जड़ में लगे हैं
और राही -रास्ता भूलने लगे हैं .....

कैसी हवा चलने लगी --
राजा ! तू कैसे राज करेगा
कि आने वाली सदी तक
एक राख सी उड़ने लगी ...

Sunday, December 14, 2008

.........................भाग
.......................भाग

"यह कहानी नही ....भाग "

चाँद सूरज जिस तरह एक झील में उतरते हैं
मैंने तुम्हे देखा नही ,कुछ नक्श उभरते हैं ...

माना की रात लम्बी है और नजर कुछ आता नहीं
कितनों के सारे काफिले ,इस राह से गुजरते हैं ..

वायदों को तोड़ती है .हर बार ही ये ज़िन्दगी
कुछ लोग हैं मेरी तरह ,फ़िर एतबार करते हैं ....

यह पंक्तियाँ जैसे यह कहानी न हो कर भी एक कहानी बुन जाती है ....सड़कें मिलती है राहें भी मिलती है .पर न जाने उन पर चलने वाले क्यों नही मिल पाते ....

और फ़िर एक बार अचानक चलती हुई रेलगाडी में मिलाप हो गया अ का स से ... के साथ माँ भी थी और उसका एक दोस्त भी .. की सीट बहुत दूर थी ..पर के उस दोस्त ने सीट बदल ली थी ,उसका सूटकेस उठा करके पास रख दिया था .गाड़ी में दिन एक समय में ठण्ड नही थी पर रात ठंडी थी ............माँ ने दोनों को एक कम्बल दिया आधा अ के लिए आधा स के लिए ..और चलती हुई उस गाड़ी में उस सांझे कम्बल के किनारे जादू की दीवारें बन गई थी ............

जादू की दीवारें बनती थी .मिटती थी और आख़िर उनके बीच खंडहरों की खामोशी का एक ढेर लग जाता था ..

को कोई बंधन नही था ,अ को था .पर वह तोड़ सकती थी ..फ़िर यह क्या था कि वे तमाम उम्र सड़कों पर चलते रहे ..

अब तो उम्र बीत गई ने उम्र के तपते दिनों के बारे में भी सोचा .और अब ठंडे दिनों के बारे में भी ..लगा सब दिन सब बरस "पाम के पत्तो "की तरह हवा में खड़े कांप रहे थे

बहुत दिन हुए एक बार ने बरसों की खामोशी को तोड़ कर पूछा था ..तुम बोलते क्यों नहीं ? कुछ कहते क्यों नहीं ? कुछ तो कहो ...!"
पर हंस दिया था और बोला .यहाँ रोशनी बहुत है हर जगह रोशनी होती है और रोशनी में मुझसे बोला नही जाता है ...

औरका जी किया था --वह एक बार सूरज को पकड़ कर बुझा दे ..सड़कों पर सिर्फ़ दिन चढ़ते हैं रातें तो घरों में होती है .पर घर तो कोई था नहीं ..इसलिए रात भी कहीं न थी ...उनके पास सिर्फ़ सड़कें थी और सूरज था और तो सूरज की रोशनी में बोलता नहीं था ....


एक बार बोला था ----

वह चुप बैठा हुआ था .क्या सोच रहे हो ..? तो वह बोला था कि सोच रहा हूँ ...कि मैं और लड़कियों से फ्लर्ट करूँ और तुम्हे दुखी करूँ ...
पर इस तरह दुखी नही सुखी हो जाती ..इस लिए अब भी हंसने लगी और भी ....

और फ़िर एक लम्बी खामोशी .....

कई बार के जी में आता था हाथ आगे बढ़ा कर को उसकी खामोशी से बाहर ले आए ,वहां तक जहाँ तक दिल
का दर्द है ..पर वह सिर्फ़ अपने हाथों को देखती रहती थी ...उसने हाथों से कभी कुछ कहा ही नहीं था ..

एक बार ने कहा था .."चलो!चीन चलें !"
"चीन ?"

जायेंगे , पर आयेंगे नहीं

"पर चीन ही क्यों ?"

यह" क्यों "भी पाम के पेड़ के समान था .जिसके पत्ते हवा में कांपने लगे ..उस समय ने तकिये पर सर रखा हुआ था पर नींद नहीं आ रही थी ..बराबर के कमरे में सोया हुआ था, शायद नींद की गोली खा कर ..
को न अपने जागने पर गुस्सा आया न की नींद पर ..वह सिर्फ़ सोच रही थी कि वे सड़कों पर चलते हुए मिल जाते हैं तो घड़ी पहर के लिए जादू का घर क्यों बन कर खड़ा हो जाता है ?

को हँसी आ गई ..तपती जवानी के समय तो ऐसा होता था ,ठीक है ..,लेकिन अब क्यों होता है ? आज क्यों हुआ ?

यह न जाने क्या था जो उम्र की पकड़ में नहीं आ रहा था ..

बाकी रात न जाने कब बीत गई ..अब दरवाजे पर धीरे से खटका हुआ ....ड्राइवर कह रहा था कि एयरपोर्ट जाने का समय हो गया है ..
ने साड़ी पहनी ,सूटकेस उठायाभी जाग कर अपने कमरे से बाहर आया और वे दोनों उस दरवाज़े की और बढे जो बाहर सड़क पर जा कर खुलता है ..

ड्राइवर ने के हाथ से सूटकेस ले लिया था और अब को अपने हाथ और भी खाली खाली लग रहे थे ..वह दहलीज के पास आ कर अटक सी गई ,फ़िर जल्दी से अन्दर गई और बैठक में सोयी माँ को प्रणाम कर के बाहर आ गई ...

फ़िर एयरपोर्ट वाली सड़क शुरू हो गई ,ख़त्म होने को भी आ गई पर स भी चुप था अ भी ......

अचानक ने कहा .."तुम्हे कुछ कहने जा रही थी न ..? "

"नहीं तो "

और वह चुप हो गया

फ़िर अ को लगा ..शायद को भी बहुत कुछ कहना था ,बहुत कुछ सुनना था ,पर अब बहुत देर हो गई थी अब सब शब्द जमीन में गढ़ गए थे ..पाम के पेड़ बन गए थे .और मन के समुन्द्र के पास लगे हुए उन पेडों के पत्ते तब तक कांपते रहेंगे जब तक हवा चलेगी ...

एयरपोर्ट आ गया और पांवों के नीचे के शहर की सड़क भी टूट गई

अब सामने एक नई सड़क थी जो हवा से गुजर कर अ के शहर की एक सड़क से जा मिलने को थी .....
और वहां जहाँ दो सड़कें एक दूसरे के पहलू से निकलती है ,स ने अ को धीरे से अपने कंधे से लगा लिया ..और फ़िर वे दोनों कांपते हुए पांवों के नीचे की जमीन इस तरह से देखने लगे ,जैसे उन्हें उस घर का ध्यान आ गया हो जो कभी बना ही नही था .....!!!!

समाप्त

Thursday, December 11, 2008

यह कहानी नही ...भाग


पिछली कड़ी में दो पंकितयां लिखी थी

कभी तो कोई इन दीवारों से पूछे
की कैसे इबादत गुनाह बन गई थी

और यह कहानी नहीं है ......... कह कर एक न खत्म होने वाली कहानी शुरू हुई ..इसकी आगे की लिखी पंक्तियाँ जैसे इसी कहानी की रूह बन गयीं ..और ख़ुद बा खुद मेरे जहन पर कब्जा जमा कर बैठ गई ..

देखा उन्हें तो यह उनकी नजर थी
वही तो खुदा की निगाह बन गई थी

कहानी जो रोजेअजल से चली थी
कैसे वह जीने की वजह बन गई थी

मेरी ज़िन्दगी थी मुसलसल अँधेरा
वही मौत की एक सुबह बन गई थी .....

चलिए इसी जज्बे को दिल में ले कर आगे बढ़ते हैं उस कहानी की तरफ़ जो कहानी हो कर भी कहानी नही है....

भाग से आगे ......

न जाने कब नींद आगई उसको ...सो कर जब उठी तो खासा दिन चढा हुआ था बैठक में रात को होने वाली दावत की हलचल थी ..
एक बार तो आँखे झपक कर रह गई ..बैठक के सामने खड़ा था ...चार खाने का नीले रंग का तहमद पहने हुए ...अ ने उसको कभी रात के सोने के समय के कपडों में नही देखा था ..हमेशा दिन में देखा था ..किसी सड़क पर ,सड़क के किनारे कैफे में या होटल में या किसी मीटिंग में ..उसको उसकी यह नई सी पहचान लगी आँखों में अटक गई यह पहचान ..

ने भी इस वक्त नाईट सूट पहना था परने बैठक में आने से पहले उस पर ध्यान नही दिया था अब दिया तो अजीब सा लगा साधारण सा होता हुआ भी असाधरण सा ..

बैठक में उसको आता हुआ देख कर बोला ..""यह दो सोफे हैं इसको लम्बाई के रुख में रख दे बीच में काफ़ी जगह बन जायेगी ..""

ने सोफों की पकड़वाया छोटी मेजों को उठा कर बीच में रखा फ़िर माँ ने आवाज़ दी तो ने वहां से चाय ला कर बीच मेज में रख दी

चाय पी कर ने उस से कहा ...."चलो जिन लोगों को बुलाया है उनके घर जा कर कह आए ..और लौटते हुए कुछ फल भी लेते आयेंगे ..."

दोनों तैयार हो कर पुराने परिचित दोस्तों के घर गए .संदेश दिए रास्ते से सब खरीदा जो चहिये था फ़िर वापस
कर दोपहर का खाना खाया और फ़िर बैठक को फूलों से सजाने लग गए /रास्ते में दोनों ने साधरण सी बाते भी की .."कि कौन से फल लेने हैं ..पान लेने है कि नहीं ..ड्रिंक्स के साथ कबाब कितने ले.... फलां के घर रास्ते में पड़ता है उनको भी बुला लें ...और वह बातें नहीं की ,जो सात बरस मिलने वाले करते हैं .."

को सवेरे दोस्तों के घर पर दूसरी दस्तक देती ही कुछ परेशानी सी हुई ..वे भले ही के दोस्त थे ..पर लंबे समय से को भी जानते थे .दरवाज़ खोलने पर बाहर उसको के साथ देखते तो हैरान हो कर पूछते..अरे ! आप !!


पर जब वे गाड़ी में आ कर बैठते तो हंस देता देखा कितना हैरान हो उठा था वह तुम्हे देख कर ..उस से तो बोला भी नही जा रहा था ...
और फ़िर एक दो दोस्तों की हैरानी भी उनकी साधरण सी बातों में शामिल हो गई .स की तरह अब भी सहज मन से हंसने लगी ..
शाम के समय ने छाती में दर्द की शिकायत की ..माँ ने कटोरी में ब्रांडी डाल दी और से कहा यह ले बेटी इसकी छाती में मल दे ..यह ब्रांडी ..इसको आराम मिल जायेगा

इस समय तक सहज हो चुकी थी और भी .....उसने आराम से की कमीज के ऊपर वाले तीन बटन खोले और हाथ से धीमे धीमे ब्रांडी मलने लगी ...
बाहर पाम के पत्ते अभी भी कांप रहे थे पर अब के हाथों में कोई कम्पन नही था .....एक दोस्त समय से पहले आ गया था , ने ब्रांडी में भीगे हुए हाथ उसका स्वागत किया था नमस्कार भी किया और हाथ डूबो कर बाकी ब्रांडी को उसके कंधो पर मल दिया .
धीरे धीरे कमरा मेहमानों से भर गया ,..अ फिर्ज़ से बर्फ निकलती गई और सादा पानी भर भर कर फिर्ज़ में रखती गई .बीच में रसोई में जाती और ठंडे कबाब फ़िर से गर्म कर के ले आती ..सिर्फ़ एक बार जब स ने अ के कानों में कहा तीन चार लोग वह भी आ गए हैं जिन्हें बुलाया नही था ..लगता है वह तुम्हे देखने के लिए आ गए होंगे किसी दोस्त के कहने पर ..तो उसकी पल भर के लिए स्वभाविकता टूटी ...पर फ़िर जब ने उसको गिलास धो के लाने को कहा तो कहा तो वह फ़िर से सहज मन हो गई ......

महफ़िल गर्म हुई .रात ठंडी हुई ...और लगभग आधी रात के समय सब चले गए .. को सोने वाले कमरे में अपने सूटकेस से रात के कपड़े निकलते हुए लगा कि सड़कों पर बना हुआ वह जादू का घर कहीं नही था ....

यह जादू का घर उसने कई बार देखा था बनते हुए भी मिटते हुए भी ..इस लिए वह हैरान नही थी .सिर्फ़ थकी थकी सो तकिये पर सर रख कर सोचने लगी कब की बात है शायद पच्चीस बरस हो गए ..नहीं तीस बरस ..जब वह पहली बार ज़िन्दगी की सड़क पर मिले थे अ किस सड़क से आई .स किस सड़क से आया था यह दोनों ही पूछना भूल गए थे ...और बताना भी ..वह नीची निगाह किए जमीन में नीवं खोदते रहे और फ़िर यहाँ एक जादू का घर बन कर खड़ा हो गया ..और वह सहज मन से सारे दिन उस घर में रहते रहे ..

फ़िर जब दोनों की सड़कों ने उन्हें आवाज़ दी वे अपनी वे अपनी अपनी सड़क की और जाते हुए चौंक कर खड़े हो गए देखा --दोनों सड़कों के बीच एक गहरी खाई है .स कितनी देर उस खाई को देखता रहा जैसे अ से पूछ रहा हो की इस खाई को तुम किस तरह पार करोगी ? ने कहा कुछ नही था ...पर के हाथ की और देखा था जैसे कह रही हो तुम हाथ पकड़ कर पार करवा लो .मैं मजहब की इस खाई को पार कर जाउंगी

फ़िर का ध्यान ऊपर की और गया के हाथ की और की उंगली में हीरे की अंगूठी चमक रही थी . कितनी देर तक उसको देखता रहा जैसे पूछ रहा हो कि यह ऊँगली पर जो यह कानून का धागा लिपटा हुआ है मैं इसका क्या करूँगा ? ने अपनी ऊँगली की और देखा और धीरे से हंस पड़ी ..जैसे कह रही हो तुम एक बार कहो मैं कानून का यह धागा नाखूनों से खोल दूंगी .नाखूनों से नही खुलेगा तो दांतों से खोल दूंगी ..

पर चुप रहा था और भी चुप खड़ी रह गई थी ..पर जैसे सड़कें एक ही जगह कर खड़ी हुई भी चलती रहती है वे भी एक जगह खड़े हुए चलते रहे थे ....

फ़िर एक दिन के शहर से आने वाली सड़क के शहर में आ गई थी .अ ने स की आवाज़ सुन कर अपने एक बरस के बच्चे को उठाया और बाहर सड़क पर उसके पास आ कर खड़ी हो गई .. ने धीरे से हाथ आगे कर के सोये हुए बच्चे को से ले लिया और अपने कंधे से लगा लिया और फ़िर वह सारा दिन उस शहर की सड़कों पर चलते रहे ...
वे भरपूर जवानी के दिन थे उनके .....न धूप थी न ठण्ड और फ़िर जब चाय पीने के लिए वह एक कैफे में गए तो बेरे ने एक मर्द ,एक औरत और एक बच्चे को देख कर एक अलग कोने में कुर्सियां पौंछ कर लगा दी थी ..और उस कैफे में जैसे ,उस अलग कोने में एक अलग जादू का घर बन कर खड़ा हो गया था ..

जारी है अगले अंक में भी ....







Tuesday, December 9, 2008

कभी तो कोई इन दीवारों से पूछे
कि कैसे इबादत गुनाह बन गई है .....

अमृता के जहन पर जो साए थे वही उसकी कहानियो में ढलते रहे ..उसकी कहानी के किरदार बनते रहे .चाहे वह शाह जी की कंजरी हो या जंगली बूटी की अंगूरी ..या फ़िर और किरदार .अमृता को लगता कि उनके साथ जो साए हैं वह आज के वक्त के नहीं हैं पता नही किस काल से ,किस वक्त से हैं ,वह ख़ुद बा ख़ुद कहानी के कविता के किरदार बनते चले गए .कई बार ऐसा होता है कि हमारे आस पास कई छोटी -छोटी घटनाएँ घटित होती रहती है और उनको हम जैसे उनको चेतन मन में संभाल लेते हैं ...इसी तरह की एक घटना को अमृता ने तब लिखा जब साहिर को एक रुमाल की जरुँरत पड़ी .तो अमृता ने उसको नया रुमाल दिया और उसका पुराना मैला रुमाल अपने पास संभाल लिया जो साहिर ने वहीँ छोड़ दिया था ...इसी तरह के वाकया को लिखने के लिए उन्होंने कहा कि नज्में तो बहुत लिखी पर इस तरह की छोटी छोटी बातों को संभालने के लिए एक कहानी भी लिखी थी ,जिस को उन्होंने नाम दिया था ...यह कहानी नहीं ..पर यह कहानी थी .........इस में उन्होंने किरदारों के नाम और दिए ....उन्हीं के लफ्जों में ...

यह कहानी नही ..........
[भाग १ ]

पत्थर और चूना बहुत था ,लेकिन अगर थोडी सी जगह पर दीवार की तरह उभर कर खड़ा हो जाता तो घर की दीवारें बन सकती थी ...पर बनीं नहीं ..वह धरती पर फ़ैल गया ,सड़कों की तरह और वे तमाम उम्र उन्ही सड़कों पर चलते रहे ...

सड़कें कभी एक दूसरे के पहलू से भी फटती है ,एक दूसरे के शरीर को चीर कर गुजरती भी हैं ..एक दूजे का हाथ छुडा कर गुम भी हो जाती है और एक दूसरे के गले मिल कर एक दूजे में लीन भी हो जाती हैं ..वे भी एक दूसरे से मिलते रहे .पर सिर्फ़ तब जब उनके पैरों के नीचे बिछी हुई सड़कें आपस में मिल जाती ..

घड़ी पल भर के लिए शायद सड़कें भी चौंक कर रुक जाती और उनके पैर भी ...और तब शायद उनको दोनों को उस घर का ध्यान आ जाता जो शायद बना ही नहीं था ...बन सकता था ,फ़िर भी क्यों नही बना था ? वे दोनों हैरान हो कर पांवों के नीचे की जमीन को ऐसे देखते थे जैसे उस जमीन से पूछ रहे हों ....

और कितनी देर तक उस जमीन को देखते रहते और उसको इस नजर से देखते जैसे वह नजर से उस जमीन में उस घर की नीवं खोद देंगे और अपना एक घर बना लेंगे ...

और कई समय बाद सचमुच वहां वह जादू का घर उभर कर खडा हो जाता और वह दोनों इस तरह से सहज हो जाते मानों बरसों से उस घर में रह रहे हों ...

यह उनकी भरपूर जवानी की बात नहीं ,अब की बात है ,ठंडी उम्र की बात ..कि "अ" एक सरकारी मीटिंग के ' "के शहर गई .. को वक्त ने जितना सरकारी ओहदा दिया है और बराबर की हेसियत के लोग जब मीटिंग से उठे ,सरकारी दफ्तर ने बाहर के शहरों से आने वालों के वापसी के टिकट तैयार रखे हुए थे , ने आगे बढ़ कर का टिकट ले लिया और बाहर आ कर से अपनी गाड़ी में आ कर बैठने को कहा ...

पूछा समान कहाँ है ?
"होटल में !"
ने ड्राइवर से पहले होटल में चलने को कहा और फ़िर वापस घर चलने के लिए

ने कोई आपत्ति नही की .पर तर्क के तौर पर कहा कि "'प्लेन जाने में सिर्फ़ दो घंटे बाकी है होटल हो कर मुश्किल से एयरपोर्ट पहुंचूंगी "
प्लेन कल भी जाएगा परसों भी जायेगा और रोज जायेगा .स ने सिर्फ़ इतना कहा और फ़िर पूरे रास्ते कुछ नही कहा .


होटल से सूटकेस ले कर गाड़ी में रख लिया तो ने फ़िर कहा ..."वक्त थोड़ा है प्लेन मिस हो जाएगा "

ने जवाब दिया कि घर पर माँ इन्तजार रही होगी ...
सोचती रही कि शायद ने माँ को मीटिंग का दिन बताया हुआ था पर वह समझ नही सकी कि "क्यों "बताया हुआ था ?

कभी कभी मन से यह क्यों पूछ लेती थी पर जवाब का इन्तजार नही करती थी .वह जानती थी कि मन के पास कोई जवाब नहीं है .वह चुप बैठी बाहर इमारतों को देखती रही ..
कुछ देर बार इमारतों का सिलसिला टूट गया शहर से बाहर दूर आबादी आ गई और पाम के बड़े बड़े पेडों की कतारे शुरू हो गयीं
समुंदर शायद कहीं पास था अ की साँसे जैसे नमकीन हो गई उसको लगा जैसे पाम के पत्तों में कम्पन आ गया है .... स का घर अब पास था ..

पेड़ पत्तों से लिपटी हुई कॉटेज के पास पहुँच कर गाड़ी खड़ी हो गई भी उतरी पर कॉटेज के पास भीतर जाते हुए वह एक पल के लिए केले के पेड़ के पास खड़ी हो गई ..जी किया अपने कांपते हुए हाथो को वह कांपते हुए केले ले पत्तो के बेच में रख दे ..वह के साथ भीतर जा सकती थी पर हाथों कि वहां जरुरत नहीं थी ..इन हाथों से अब वह न को कुछ दे सकती थी न से कुछ ले सकती थी .....

माँ ने शायद गाड़ी की आवाज़ सुन ली थी .बाहर आके उन्होंने हमेशा की तरह का माथा चूमा और कहा ...आओ बेटी ...
इस बार बहुत दिनों बाद माँ से मिली थी .पर माँ ने जैसे ही उसके सर पर हाथ फेरा उसको लगा जैसे बरसों का बोझ सर से उतर गया और वह फूल सी हलकी हो गई हो उन्होंने उसको भीतर ले जा कर बैठाया और पूछ कि क्या पियोगी बेटी ...

भी तब तक भीतर आ गया था .वह माँ से कहने लगा...." पहले चाय बनावो ....फ़िर खाना !"

ने देखा ड्राइवर उसका सूटकेस अन्दर ला रहा था ..उसने फ़िर से की तरफ देखा और कहा कि वक्त बहुत थोड़ा है बहुत मुश्किल से पहुंचूंगी ...
ने उस से नही ड्राइवर से कहा कल सवेरे जा कर परसों का टिकट ले आना और माँ से कहा ..."तुम कहती थी न कि मेरे कुछ दोस्तों को खाने पर बुलाना है उनको बुला लो कल खाने पर ...."

ने स की जेब की तरफ़ देखा जिस में उसकी वापसी का टिकट था ..और फ़िर कहा कि 'यह टिकट बरबाद हो जायेगा '

माँ रसोई कई तरफ़ जाते हुए रुक गई और बोली कि ..."बेटी टिकट का क्या है!" इतना कह रहा है यह तो रुक जाओ "

पर "क्यों "अ के मन में आया पूछे पर कहा कुछ नहीं ..कुर्सी से उठ कर बरामदे में जा कर खड़ी हो गई .सामने दूर दूर तक पाम के ऊँचे ऊँचें पेड़ थे ..समुन्दर परे था ..उसकी आवाज़ उसको सुनाई दे रही थी .. को लगा सिर्फ़ आज का "क्यों .".नहीं ..उसकी ज़िन्दगी के कितनी ही "क्यों "इस पाम के पेडों की तरह उगे हुए हैं और उनके पत्ते अनेक वर्षों से जैसे हवा में कांप रहे हैं ..

ने घर में मेहमान की तरह चाय पी रात को खाना क्या और घर का गुसलखाना पूछ कर रात के कपड़े बदले .माँ ने अपना कमरा उसको दे दिया और ख़ुद बैठक में जा कर सो गयीं .. सोने वाले कमरे में खड़ी कितनी देर तक सोचतो रही झिझकती रही कि यह कमरा माँ का है वह स्वयं बैठक में सो लेती उसने माँ का कमरा क्यों लिया यहाँ तो माँ को ही सोना चाहिए था .
सोने वाले कमरे में पलंग में परदों में अलमारी में एक घरेलू सी बू बास होती है ..ने इसका एक घूंट सा भरा .पर फ़िर अपनी साँस रोक ली मानो अपनी ही साँसों से डर रही हो ..

बराबर का कमरा का था कोई आवाज़ नही थी वहां ..घडी पहले ने सिरदर्द की शिकायत की थी ,नींद की गोली खायी थी अब तक शायद सो गया था वह ....पर बराबर कमरों वालों की भी अपनी एक बू बास होती है ....अ ने एक घूंट उसका भी पीना चाहा...... पर साँस रुका रहा ..
फ़िर का ध्यान अलमारी के पास फर्श पर पड़े हुए अपने सूटकेस की तरफ गया और उसको हँसी आ गई ..यह देखो मेरा सूटकेस ..मुझे सारी रात मेरी मुसाफिरी की याद दिलाता रहेगा ...
और वह सूटकेस की और देखते हुए थकी हुई सी तकिये पर अपना सर रख कर लेट गई .........

जारी है अगले अंक में भी ..

Sunday, December 7, 2008

पहला भाग

दूसरा भाग

कमरे के एक कोने में शाह भी था। दोस्त भी थे, कुछ रिश्तेदार मर्द भी। उस नाजनीन ने उस कोने की तरफ देख कर भी एक बार सलाम किया, और फिर परे गाव-तकिये के सहारे ठुमककर बैठ गयी। बैठते वक्त कांच की चूड़िया फिर छनकी थीं, शाहनी ने एक बार फिर उसकी बाहों को देखा, हरे कांच की और फिर स्वभाविक ही अपनी बांह में पड़े उए सोने के चूड़े को देखने लगी....

कमरे में एक चकाचौध सी छा गयी थी।  हरएक की आंखें जैसे एक ही तरफ उलट गयीं थीं, शाहनी की अपनी आंखें भी, पर उसे अपनी आंखों को छोड़ कर सबकी आंखों पर एक गुस्सा-सा आ गया...

वह फिर एक बार कहना चाहती थी - अरी बदशुगनी क्यों करती हो? सेहरे गाओ ना ...पर उसकी आवाज गले में घुटती सी  गयी थी। शायद ओरों की आवाज भी गले में घुट सी गयी थी। कमरे में एक खामोशी छा गयी थी। वह अधबीच रखी हुई ढोलक की तरफ देखने लगी, और उसका जी किया कि वह बड़ी जोर से ढोलक बजाये.....

खामोशी उसने ही तोड़ी जिसके लिये खामोशी छायी थी। कहने लगी, " मैं तो सबसे पहले घोड़ी गाऊंगी, लड़के का ’सगन’ करुंगी, क्यों शाहनी?" और शाहनी की तरफ ताकती, हंसती हुई घोड़ी गाने लगी, "निक्की निक्की बुंदी निकिया मींह वे वरे, तेरी मां वे सुहागिन तेरे सगन करे...."

शाहनी को अचानक तस्सली सी हुई - शायद इसलिये कि गीत के बीच की मां वही थी, और उसका मर्द भी सिर्फ उसका मर्द था - तभी तो मां सुहागिन थी....

शाहनी हंसते से मुंह से उसके बिल्कुल सामने बैठ गयी -जो उस वक्त उसके बेटे के सगन कर रही थी...

घोड़ी खत्म हुई तो कमरे की बोलचाल फिर से लौट आयी। फिर कुछ स्वाभाविक सा हो गया। औरतों की तरफ से फरमाईश की गयी - "डोलकी रोड़ेवाला गीत।" मर्दों की तरफ से फरमाइश की गयी "मिरजे़ दियां सद्दां।"

गाने वाली ने मर्दों की फरमाईश सुनी अनसुनी कर दी, और ढोलकी को अपनी तरफ खींच कर उसने ढोलकी से अपना घुटना जोड़ लिया। शाहनी कुछ रौ में आ गयी - शायद इस लिये कि गाने वाली मर्दों की फरमाईश पूरी करने के बजाये औरतों की फरमाईश पूरी करने लगी थी....

मेहमान औरतों में से शायद कुछ एक को पता नहीं था। वह एक दूसरे से कुछ पूछ रहीं थीं, और कई उनके कान के पास कह रहीं थीं - "यही है शाह की कंजरी....."

कहनेवालियों ने शायद बहुत धीरे से कहा था  - खुसरफुसर सा, पर शाहनी के कान में आवाज़ पड़ रही  थी, कानों से टकरा रही थी - शाह की कंजरी.....शाह की कंजरी.....और शाहनी के मूंह का रंग फीका पड़ गया।

इतने में ढोलक की आवाज ऊंची हो गयी और साथ ही गाने वाली की आवाज़, "सुहे वे चीरे वालिया मैं कहनी हां...." और शाहनी का कलेजा थम सा गया -- वह सुहे चीरे वाला मेरा ही बेटा है, सुख से आज घोड़ी पर चढ़नेवाला मेरा बेटा.....

फरमाइश का अंत नहीं था। एक गीत खत्म होता, दूसरा गीत शुरू हो जाता। गाने वाली कभी औरतों की तरफ की फरमाईश पूरी करती, कभी मर्दों की। बीच बीच में कह देती, "कोई और भी गाओ ना, मुझे सांस दिला दो।" पर किसकी हिम्मत थी, उसके सामने होने की, उसकी टल्ली सी आवाज़ .....वह भी शायद कहने को कह रही थी, वैसे एक के पीछे झट दूसरा गीत छेड़ देती थी।

गीतों की बात और थी पर जब उसने मिरजे की हेक लगायी, "उठ नी साहिबा सुत्तिये! उठ के दे दीदार..." हवा का कलेजा हिल गया। कमरे में बैठे मर्द बुत बन गये थे। शाहनी को फिर घबराहट सी हुई, उसने बड़े गौर से शाह के मुख की तरफ देखा। शाह भी और बुतों सरीखा बुत बना हुआ था, पर शाहनी को लगा वह पत्थर का हो गया था....

शाहनी के कलेजे में हौल सा हुआ, और उसे लगा अगर यह घड़ी छिन गयी तो वह आप भी हमेशा के लिये बुत बन जायेगी..... वह करे, कुछ करे, कुछ भी करे, पर मिट्टी का बुत ना बने.....

काफी शाम हो गयी, महफिल खत्म होने वाली थी.....

शाहनी का कहना था, आज वह उसी तरह बताशे बांटेगी, जिस तरह लोग उस दिन बांटते हैं जिस दिन गीत बैठाये जाते हैं।  पर जब गाना खत्म हुआ तो कमरे में चाय और कई तरह की मिठायी आ गयी.....

और शाहनी ने मुट्ठी में लपेटा हुआ सौ का नोट निकाल कर, अपने बेटे के सिर पर से वारा, और फिर उसे पकड़ा दिया, जिसे लोग शाह की कंजरी कहते थे।

"रहेने दे, शाहनी!  आगे भी तेरा ही खाती हूं।" उसने जवाब दिया और हंस पड़ी। उसकी हंसी उसके रूप की तरह झिलमिल कर रही थी।

शाहनी के मुंह का रंग हल्का पड़ गया।  उसे लगा, जैसे शाह की कंजरी ने आज भरी सभा में शाह से अपना संबंध जोड़ कर उसकी हतक कर दी थी। पर शाहनी  ने अपना आप थाम लिया। एक जेरासा किया कि आज उसने हार नहीं खानी थी। वह जोर से हंस पड़ी। नोट पकड़ाती हुई कहने लगी, "शाह से तो तूने नित लेना है, पर मेरे हाथ से तूने फिर कब लेना है? चल आज ले ले......."

और शाह की कंजरी नोट पकड़ती हुई, एक ही बार में हीनी सी हो गयी.....

कमरे में शाहनी की साड़ी का सगुनवाल गुलाबी रंग फैल गया.......

Thursday, December 4, 2008

पहले भाग से आगे:-

फ्लैटी होटल आम होटलों जैसा नहीं था। वहां ज्यादातर अंग्रेज़ लोग ही आते और ठहरते थे। उसमें अकेले अकेले कमरे भी थे, पर बड़े बड़े तीन कमरों के सेट भी। ऐसे ही एक सेट में नीलम रहती थी। और शाह ने सोचा - दोस्तों यारों का दिल खुश करने के लिये वह एक दिन नीलम  के यहां एक रात की महफिल रख लेगा।

"यह तो चौबारे पर जाने वाली बात हुई," एक ने उज्र किया तो सारे बोल पड़े, " नहीं, शाह जी! वह तो सिर्फ तुम्हारा ही हक बनता है। पहले कभी इतने बरस हमने कुछ कहा है? उस जगह का नाम भी नहीं लिया। वह जगह तुम्हारी अमानत है। हमें तो भतीजे के ब्याह की खुशी मनानी है, उसे खानदानी घरानों की तरह अपने घर बुलाओ, हमारी भाभी के घर।"

बात शाह के मन भा गयी। इस लिये कि वह दोस्तों यारों को नीलम की राह दिखाना नहीं चाहता था (चाहे उसके कानों में भनक पड़ती रहती थी कि उसकी गैरहाजरी में कोई कोई अमीरजादा नीलम के पास आने लगा था।) - दूसरे इस लिये भी कि वह चाहता था, नीलम एक बार उसके घर आकर उसके घर की तड़क भड़क देख जाये। पर वह शाहनी से डरता था, दोस्तों को हामी ना भार सका।

दोस्तों यारों में से दो ने राह निकाली और शाहनी के पास जाकर कहने लगे, " भाभी तुम लड़के की शादी के गीत नहीं गवांओगी? हम तो सारी खुशियां मनायेंगे। शाह ने सलाह की है कि एक रात यारों की महफिल नीलम की तरफ हो जाये। बात तो ठीक है पर हजारों उजड़ जायेंगे। आखिर घर तो तुम्हारा है, पहले उस कंजरी को थोड़ा खिलाया है? तुम सयानी बनो, उसे गाने बजाने के लिये एक दिन यहां बुला लो। लड़के के ब्याह की खुशी भी हो जायेगी और रुपया उजड़ने से बच जायेगा।"

शाहनी पहले तो भरी भरायी बोली, " मैं उस कंजरी के माथे नहीं लगना चाहती," पर जब दूसरों ने बड़े धीरज से कहा, " यहां तो भाभी तुम्हारा राज है, वह बांदी बन कर आयेगी, तुम्हारे हुक्म में बधीं हुई, तुम्हारे बेटे की खुशी मनाने के लिये। हेठी तो उसकी है, तुम्हारी काहे की? जैसे कमीन कुमने आये, डोम मरासी, तैसी वह।"

बात शाहनी के मन भा गयी। वैसे भी कभी सोते बैठते उसे ख्याल आता था- एक बार देखूं तो सही कैसी है?

उसने उसे कभी देखा नहीं था पर कल्पना जरूर थी - चाहे डर कर, सहम कर, चहे एक नफरत से। और शहर में से गुजरते हुए, अगर किसी कंजरी को टांगे में बैठते देखती तो ना सोचते हुए ही सोच जाती - क्या पता, वही हो?

"चलो एक बार मैं भी देख लूं," वह मन में घुल सी गयी, " जो उसको मेरा बिगाड़ना था, बिगाड़ लिया, अब और उसे क्या कर लेना है! एक बार चन्दरा को देख तो लूं।"

शाहनी ने हामी भर दी, पर एक शर्त रखी - " यहां ना शराब उड़ेगी, ना कबाब। भले घरों में जिस तरह गीत गाये जाते हैं, उसी तरह गीत करवाउंगी। तुम मर्द मानस भी बैठ जाना। वह आये और सीधी तरह गा कर चली जाये। मैं वही चार बतासे उसकी झोली में भी डाल दूंगी जो ओर लड़के लड़कियों को दूंगी, जो बन्ने, सहरे गायेंगी।"

"यही तो भाभी हम कहते हैं।" शाह के दोस्तों नें फूंक दी, "तुम्हारी समझदारी से ही तो घर बना है, नहीं तो क्या खबर क्या हो गुजरना था।"

वह आयी। शाहनी ने खुद अपनी बग्गी भेजी थी। घर मेहेमानों से भरा हुआ था। बड़े कमरे में सफेद चादरें बिछा कर, बीच में ढोलक रखी हुई थी। घर की औरतों नें बन्ने सेहरे गाने शुरू कर रखे थे....।

बग्गी दरवाजे पर आ रुकी, तो कुछ उतावली औरतें दौड़ कर खिड़की की एक तरफ चली गयीं और कुछ सीढ़ियों की तरफ....।

"अरी, बदसगुनी क्यों करती हो, सहरा बीच में ही छोड़ दिया।" शाहनी ने डांट सी दी। पर उसकी आवाज़ खुद ही धीमी सी लगी। जैसे उसके दिल पर एक धमक सी हुयी हो....।

वह सीढ़ियां चढ़ कर दरवाजे तक आ गयी थी। शाहनी ने अपनी गुलाबी साड़ी का पल्ला संवारा, जैसे सामने देखने के लिये वह साड़ी के शगुन वाले रंग का सहारा ले रही हो...।

सामने उसने हरे रंग का बांकड़ीवाला गरारा पहना हुआ था, गले में लाल रंग की कमीज थी और सिर से पैर तक ढलकी हुयी हरे रेशम की चुनरी। एक झिलमिल सी हुयी। शाहनी को सिर्फ एक पल यही लगा - जैसे हरा रंग सारे दरवाजे़ में फैल गया था।

फिर हरे कांच की चूड़ियों की छन छन हुयी, तो शाहनी ने देखा एक गोरा गोरा हाथ एक झुके हुए माथे को छू कर आदाब बजा़ रहा है, और साथ ही एक झनकती हुई सी आवाज़ - "बहुत बहुत मुबारिक, शाहनी! बहुत बहुत मुबारिक...."

वह बड़ी नाजुक सी, पतली सी थी। हाथ लगते ही दोहरी होती थी। शाहनी ने उसे गाव-तकिये के सहारे हाथ के इशारे से बैठने को कहा, तो शाहनी को लगा कि उसकी मांसल बांह बड़ी ही बेडौल लग रही थी...।

(जारी...)

शाह की कंजरी - एक परिचय

शाह की कंजरी - पहला भाग

शाह की कंजरी - दूसरा भाग

शाह की कंजरी - अंतिम  भाग

अपनी पिछली पोस्ट में मैंने आपको अमृता प्रीतम की कहानी शाह की कंजरी के बारे में बताया था। आज प्रस्तुत है इस कहानी का पहला भाग:

शाह की कंजरी


उसे अब नीलम कोई नहीं कहता था। सब शाह की कंजरी कहते थे।


नीलम को लाहौर हीरामंडी के एक चौबारे में जवानी चढ़ी थी। और वहां ही एक रियासती सरदार के हाथों पूरे पांच हजार में उसकी नथ उतरी थी। और वहां ही उसके हुस्न ने आग जला कर सारा शहर झुलसा दिया था। पर फिर वह एक दिन हीरा मंडी का रास्ता चौबारा छोड़ कर शाहर के सबसे बड़े होटल फ्लैटी में आ गयी थी।
वही शहर था, पर सारा शहर जैसे रातों रात उसका नाम भूल गया हो, सबके मुंह से सुनायी देता था -शाह की कंजरी।


गजब का गाती थी। कोई गाने वाली उसकी तरह मिर्जे की सद नहीं लगा सकती थी। इसलिये चाहे लोग उसका नाम भूल गये थे पर उसकी आवाज नहीं भूल सके। शहर में जिसके घर भी तवे वाला बाजा था, वह उसके भरे हुए तवे जरूर खरीदता था। पर सब घरों में तवे की फरमायिश के वक्त हर कोई यह जरूर कहता था "आज शाह की कंजरी वाला तवा जरूर सुनना है।"


लुकी छिपी बात नहीं थी। शाह के घर वालों को भी पता था। सिर्फ पता ही नहीं था, उनके लिये बात भी पुरानी हो चुकी थी। शाह का बड़ा लड़का जो अब ब्याहने लायक था, जब गोद में था तो सेठानी ने जहर खाके मरने की धमकी दी थी, पर शाह ने उसके गले में मोतियों का हार पहना कर उससे कहा था, "शाहनिये! वह तेरे घर की बरकत है। मेरी आंख जोहरी की आंख है, तूने सुना हुआ नहीं है कि नीलम ऐसी चीज होता है, जो लाखों को खाक कर देता है और खाक को लाख बनाता है। जिसे उलटा पड़ जाये, उसके लाख के खाक बना देता है। और जिसे सीधा पड़ जाये उसे खाक से लाख बना देता है। वह भी नीलम है, हमारी राशि से मिल गया है। जिस दिन से साथ बना है, मैं मिट्टी में हाथ डालूं तो सोना हो जाती है।

"पर वही एक दिन घर उजाड़ देगी, लाखों को खाक कर देगी,"  शाहनी ने छाती की साल सहकर उसी तरफ से दलील दी थी, जिस तरफ से शाह ने बत चलायी थी।
" मैं तो बल्कि डरता हूं कि इन कंजरियों का क्या भरोसा, कल किसी और ने सब्ज़बाग दिखाये, और जो वह हाथों से निकल गयी, तो लाख से खाक बन जाना है।" शाह ने फिर अपनी दलील दी थी।


और शाहनी के पास और दलील नहीं रह गयी थी। सिर्फ वक़्त के पास रह गयी थी, और वक़्त चुप था, कई बरसों से चुप था। शाह सचमुच जितने रुपये नीलम पर बहाता, उससे कई गुणा ज्यादा पता नहीं कहां कहां से बह कर उसके घर आ जाते थे। पहले उसकी छोटी सी दुकान शहर के छोटे से बाजार में होती थी, पर अब सबसे बड़े बाजार में, लोहे के जंगले वाली, सबसे बड़ी दुकान उसकी थी। घर की जगह पूरा महल्ला ही उसका था, जिसमें बड़े खाते पीते किरायेदार थे। और जिसमें तहखाने वाले घर को शाहनी एक दिन के लिये भी अकेला नहीं छोड़ती थी।

बहुत बरस हुए, शाहनी ने एक दिन मोहरों वाले ट्रंक को ताला लगाते हुए शाह से कहा था, " उसे चाहे होटाल में रखो और चाहे उसे ताजमहल बनवा दो, पर बाहर की बला बाहर ही रखो, उसे मेरे घर ना लाना। मैं उसके माथे नहीं लगूंगी।"

और सचमुच शाहनी ने अभी तक उसका मूंह नहीं देखा था। जब उसने यह बात कही थी, उसका बड़ा लड़का स्कूल में पढ़ता था, और अब वह ब्याहने लायक हो गया था, पर शाहनी ने ना उसके गाने वाले तवे घर में आने दिये, और ना घर में किसी को उसका नाम लेने दिया था।


वैसे उसके बेटे ने दुकान दुकान पर उसके गाने सुन रखे थे, और जने जने से सुन रखा था- "शाह की कंजरी। "

बड़े लड़के का ब्याह था। घर पर चार महीने से दर्जी बैठे हुए थे, कोई सूटों पर सलमा काढ़ रहा था, कोई तिल्ला, कोई किनारी, और कोई दुप्पटे पर सितारे जड़ रहा था। शाहनी के हाथ भरे हुए थे - रुपयों की थैली निकालती, खोलती, फिर और थैली भरने के लिये तहखाने में चली जाती।

शाह के यार दोस्तों ने शाह की दोस्ती का वास्ता डाला कि लड़के के ब्याह पर कंजरी जरूर गंवानी है। वैसे बात उन्होंने ने बड़े तरीके से कही थी ताकी शाह कभी बल ना खा जाये, " वैसे तो शाहजी कॊ बहुतेरी गाने  नाचनेवाली हैं, जिसे मरजी हो बुलाओ। पर यहां मल्लिकाये तर्रन्नुम जरूर आये, चाहे मिरजे़ की एक ही ’सद’ लगा जाये।"

शाह की कंजरी - एक परिचय

शाह की कंजरी - पहला भाग

शाह की कंजरी - दूसरा भाग

शाह की कंजरी - अंतिम  भाग

Monday, December 1, 2008

रंजना जी ने अपनी पिछली पोस्ट में अमृता जी की कहानी "दो औरतें" का जिक्र कुछ इस तरह किया था:

"चेतन- अचेतन मन से जुड़े हुए यह किस्से कभी कभी कलम तक पहुँचने में बरस लगा देते हैं ..इस का सबसे अच्छा उदाहरण अमृता ने अपनी कहानी "दो औरतों" में दिया है ...जो वह पच्चीस साल बाद अपनी कलम से लिख पायी ....इस में एक औरत शाहनी है और दूसरी वेश्या शाह की रखेल यह घटना उनकी आँखों के सामने लाहौर में हुई थी ....वहां एक धनी परिवार के लड़के की शादी थी और घर की लडकियां गा बजा रही थी ...उस शादी में अमृता भी शामिल थी ...तभी शोर मचा कि लाहौर की प्रसिद्ध गायिका तमंचा जान वहां आ रही है ,,जब वह आई तो बड़ी ही नाज नखरे वालीं लगीं ...उसको देख कर घर की मालकिन का रंग उड़ गया पर थोडी में ठीक भी हो गया ,आख़िर वह लड़के की माँ थीं ...तमंचा जान जब गा चुकी तो शाहनी ने सौ रूपये का नोट उसके आँचल में डाल दिया ...यह देख कर तमंचा जान का मुहं छोटा सा हो गया ..पर अपना गरूर कायम रखने के लिए उसने वह नोट वापस करते हुए कहा कि ..."रहने दे शाहनी आगे भी तेरा ही दिया खाती हूँ ."....इस प्रकार ख़ुद को शाह से जोड़ कर जैसे उसने शाहनी को छोटा कर दिया ....अमृता ने देखा कि शाहानी एक बार थोड़ा सा चुप हो गई पर अगले ही पल उसको नोट लौटा कर बोली ...."न न रख ले री ,शाह से तो तुम हमेशा ही लेगी पर मुझसे फ़िर तुझे कब मिलेगा ""...यह दो औरतों का अजब टकराव था जिसके पीछे सामाजिक मूल्य था ,तमंचा चाहे लाख जवान थी कलाकार थी पर शाहनी के पास जो माँ और पत्नी का मान था वह बाजार की सुन्दरता पर बहुत भारी था ...अमृता इस घटना को बहुत साल बाद अपनी कहानी में लिख पायी ..."

इसे पढ़ कर लगा कि इस कहानी को भी यहां प्रस्तुत किया जाये। अमृता जी की यह कहानी हिंदी में "शाह की कंजरी" नाम से छपी है। अमृता जी के महिला पात्र मुझे हमेशा से ही बहुत सम्मोहित करते हैं। "नागमणी" यानि "चक३६" के पात्र अलका के बारे में तो आपने यहां पढ़ा ही होगा कि यह अपने समय से एक शताब्दी पहले लिखा गया।  अमृता जी के सभी महिला पात्र मुझे पूरी तरह आधुनिक  लगते हैं । शाहनी और नीलम भी अवाक कर देतीं हैं। इस कहानी के बारे में अमृताजी ने एक जगह पर लिखा:

१९८७ में जब मेरी कहानी "शाह की कंजरी" टेलिविज़न पर "कश़मकश" सीरिज़ में टेलिकास्ट हुई, तो यह कहानी बहुत चर्चित हुई थी। कहानी के तीनों किरदार बहुत अच्छे पेश हो पाये थे।  लेकिन देखा उसकी जो चर्चा हो रही थी वह कहानी की गहरायी तक नहीं उतर पा रही थी।

वो कहानी मैंने अपनी आंखों के सामने घटित होते देखी थी, सन १९४५ में जब लाहौर में एक शादी वाले घर से निमंत्रण आया था, और मैं उस दिन वहां शामिल थी, जब घर में शादी ब्याह के गीतों वाला दिन बैठाया जाता है। उस दिन घर की मालकिन भी उस समागम में थी, और लाहौर की वो मशहूर नाजनीना भी, जिसे मल्लिकाये तरन्नुम कहा जाता था। और सब जानते थे कि वह घर के मालिक की रखैल थी।

उस नाज़नीना के पास सब कुछ था, हुस्न भी, नाज़ नखरा भी, बेहद खूबसूरत आवाज भी, लेकिन समाज का दिया हुआ वहा आदरणिय स्थान नहीं था, जो एक पत्नी के पास होता है। और जो पत्नी थी उसके पास ना जवानी थी, न कोई हुनर, लेकिन उसके पास पत्नी होने का आदरणिय स्थान था। पत्नी होने का भी और मां होने का भी।

दोनों औरतों के पास अपनी अपनी जगह थी, और अपना अपना दर्द। लेकिन एक का दर्द दूसरी के दर्द से टूटा हुआ था। दर्द का एक टुकड़ा दर्द के दूसरे टुकड़े को समझने में असमर्थ था।

दोनों के पास अपना अपना बल था, पर अपनी अपनी अपाहिज अवस्था का।

दोनों के पास एक एक सहारा था, जो कभी उनकी नजर में बेहद कीमती हो जाता था, और कभी बिल्कुल नाचीज़ सा।

हार का एहसास दोनों को था। लेकिन कभी एक का सहारा उसे जीत की गलतफहमी सी दे जाता और कभी दूसरी का सहारा उसे जीत की खुशफहमी में डाल देता।

यह एक भयानक टाकराव था - अपनी अपनी हार का, जो अपने अपने दर्द का इज़हार चाहता था। लेकिन समाज से नहीं, सिर्फ किसी उससे, जो दोनों के दर्द को अपने गले से लगा सके।

और यह हकीकत है कि पूरे पच्चीस साल दोनों क दर्द, मेरे दिल के एक कोने में बैठा रहा। और पच्चीस साल बाद १९७० में मैं यह कहानी लिख पायी थी- शाह की कंजरी ।

अमृता जी की इसी कहानी को यहां पेश किया किया जायेगा अगली पोस्टों में...

शाह की कंजरी - एक परिचय

शाह की कंजरी - पहला भाग

शाह की कंजरी - दूसरा भाग

शाह की कंजरी - अंतिम  भाग